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तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार पाङ्ग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्तक, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और तीर्थंकर प्रकृति । आठवें गुणस्थानके अन्त समयसे हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इन चार प्रकृतियोंका बन्ध होता है। इन प्रकृतियोंका आगेके भागोंमें और गुणस्थानोंमें संवर होता है।
नवमें गुणस्थानमें मध्यम संज्वलन कषायके उदयसे पांच प्रकृतियोंका बन्ध होता है। प्रथम संख्यात भागोंमें पुंवेद और क्रोध संज्वलनका बन्ध होता है । पुनः संख्यात भागोंमें मान और माया संज्वलनका बन्य होता है और अन्त समय लोभ संज्वलनका बन्ध होता है। इन प्रकृतियोंका आगेके भागों और गुणस्थानों में संवर होता है।
___दशमें गुणस्थानमें मन्द संज्वलन कषायके उदयसे निम्न सोलह प्रकृतियोंका बन्ध होता है और आगेके गुणस्थानोंमें उनका संवर होता है । पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, पांच अन्तराय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्र ये सोलह प्रकृतियां हैं। ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थानमें योगके निमित्त से एक ही सातावेदनीयका बन्ध होता है और चौदहवें गुणस्थानमें उसका संवर होता है।
गुणस्थानोंका स्वरूप१ मिथ्यात्व-तत्त्वार्थका यथार्थ श्रद्धान न होकर विपरीत श्रद्धान होनेको मिथ्यात्व नामक प्रथम गुणस्थान कहते हैं। दर्शनमोहनीयके तीन भेद हैं-सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व । इन तीनोंके तथा अनन्तानुबन्धी चार कषायोंके उदय न होनेपर औपशमिक सम्यक्त्व उत्पन्न होता है । औपशमिक सम्यक्त्वका काल अन्तर्मुहूर्त है।
सासादन–उपशम सम्यक्त्वके काल में उत्कृष्ट छह आवली और जघन्य एक समय शेष रहने पर अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभमें से किसी एकके उदय होनेपर तथा और दूसरे मिथ्यादर्शनके कारणोंका उदयाभाव होनेपर सासादन गुणस्थान होता है। यद्यपि सासादनसम्यग्दृष्टि जीवके मिथ्यादर्शनका उदय नहीं होता है लेकिन अनन्तानुबन्धी कषायके उदयसे उसके मति आदि तीन ज्ञान मिथ्याज्ञान ही हैं। क्योंकि अनन्तानुबन्धी कषाय मिथ्यादर्शनको ही उत्पन्न करती हैं । जीव सासादन गुणस्थानको छोड़कर मिथ्यात्व गुणस्थानमें ही आता है। .
_३ मिश्रगुणस्थान--इस गुणस्थानमें सम्यग्मिथ्यात्व कर्मके उदय होनेसे उभयरूप ( सम्यक्स्व और मिथ्यात्व ) परिणाम होते हैं जिनके कारण तत्त्वार्थों में जीव श्रद्धान और अश्रद्धान दोनों करता है । सम्यग्मिध्यादृष्टिके तीन अज्ञान सत्यासत्यरूप होते हैं।
४ अविरत सम्यग्दृष्टि इस गुणस्थानमें चारित्र मोहनीयके उदयसे सम्यग्दृष्टि जीव संयमका पालन करने में नितान्त असमर्थ होता है। अतः चौथे गुणस्थानका नाम अविरति सम्यग्दृष्टि है।
५ देशविरत-इस गुणस्थानमें जीव श्रावकके व्रतोंका पालन करता है लेकिन प्रत्याख्यानावरण कषायके उदयसे मुनिके व्रतोंका पालन नहीं कर सकता अतः इस गुणस्थानमें अप्रमत्त जीव भी अन्तर्मुहूर्त के लिये प्रमत्त (प्रमादी) हो जाता है अतः छठवें गुणस्थानका नाम प्रमत्तसंयत है। .
६प्रमत्तसंयत-इस गुणस्थानमें अप्रमत्त जीवभी अन्तर्मुहूर्त के लिए प्रमत्त (प्रमादी) हो जाता है अतः छठवें गुणस्थानका नाम प्रमत्तसंयत है।
७ अप्रमत्तसंयत-इस गुणस्थानमें निद्रा आदि प्रमादका अभाव होनेसे सातवें गुणस्थानका नाम अप्रमत्त
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