Book Title: Tattvartha Vrutti
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 590
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नवम अध्याय संवरका लक्षण आस्रवनिरोधः संवरः ॥ १॥ आस्रवके निरोधको संवर कहते हैं। आत्मामें जिन कारणोंसे कर्म आते हैं उन कारणोंको दूर कर देनेसे कर्मोंका आगमन बन्द हो जाता है, यही संवर है । संवरके दो भेद हैं-भावसंवर और द्रव्यसंवर । आत्माके जिन परिमाणों के द्वारा कर्मोंका आस्रव रुक जाता है उनको भावसंवर कहते हैं। और द्रव्य कर्मोंका आस्रव नहीं होना द्रव्यसंवर है। मिथ्यात्व गुणस्थानमें मिथ्यादर्शनके द्वारा जिन सोलह प्रकृतियोंका बन्ध होता है सासादन आदि गुणस्थानोंमें उन प्रकृतियोंका संवर होता है। वे सोलह प्रकृतियां निम्न प्रकार हैं । १ मिथ्यात्व २ नपुंसकवेद, ३ नरकायु ४ नरकगति ५-८ एकेन्द्रियसे चतुरिन्द्रिय पर्यन्त चार जाति ९ हुण्डकसंस्थान १० असंप्राप्तामृपाटिकासंहनन ११ नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य १२ आतप १३ स्थावर १४ सूक्ष्म १५ अपर्याप्तक और १६ साधारण शरीर। - अनन्तानुबन्धी कपायके उदयसे जिन पच्चीस प्रकृतियोंका आस्रव दूसरे गुणस्थान तक होता है तीसरे आदि गुणस्थानोंमें उन प्रकृतियोंका संवर होता है वे पच्चीस प्रकृतियाँ निम्न प्रकार हैं-१ निद्रानिद्रा २ प्रचलाप्रचला ३ स्त्यानगृद्धि ४-७ अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ ८ स्त्रीवेद ९ तिर्यञ्चायु १० तिर्यञ्चगति ११-१४ प्रथम और अन्तिम संस्थानको छोड़कर चार संस्थान १५-१८ प्रथम और अन्तिम संहननको छोड़कर चार संहनन १९ तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्व्य २० उद्योत २१ अप्रशस्तविहायोगति २२ दुभंग २३ दुःस्वर २४ अनोदय ओर २५ नीचगोत्र । अप्रत्याख्यानावरण कषायके उदयसे निम्न दश प्रकृतियोंका आस्रव चौथे गुणस्थान तक होता है और आगेके गुणस्थानोंमें उन प्रकृतियोंका संवर होता है। १-४ अप्रत्याख्यानावरण क्रोध. मान, माया, लोभ ५ मनुष्यायु ६ मनुष्यगति ७ औदारिक शरीराङ्गोपाङ्ग ९ वज्रवृषभनाराचसंहनन और १० मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य । सम्यग्मिथ्यात्व (मिश्र ) गुणस्थानमें आयुका बन्ध नहीं होता है । प्रत्याख्यानावरण कषायके उदयसे पाँच गुणस्थान तक प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभका आस्रव होता है। आगेके गुणस्थानों में इन प्रकृतियोंका संवर होता है। प्रमादके निमित्तसे छठवें गुणस्थान तक निम्न छह प्रकृतियोंका आस्रव होता है और आगेके गुणस्थानों में उनका संवर होता है। १ असातावेदनीय २ अरति ३ शोक ४ अस्थिर ५ अशुभ और ६ अयशःकीर्ति । देवायुके आस्रवका प्रारंभ छठवें गुणस्थानमें होता है लेकिन देवायुका आस्रव सातवें गुणस्थानमें भी होता है। आगेके गुणस्थानों में देवायुका संवर हैं। __ आठवें गुणस्थानमें तीव्र संज्वलन कषायके उदयसे निम्न छत्तीस प्रकृतियोंका आस्रव होता है और आगेके गुणस्थानों में उनका संवर होता है । आठवें गुणस्थानके प्रथम संख्यात भागों में निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियोंका बन्ध होता है। पुनः संख्यात भागोंमें तीस प्रकृतियोंका बन्ध होता है। देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वंक्रियिक, आहारक, तेजस, और कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वक्रियिकशरीराङ्गोपाङ्ग, आहारकशरीराङ्गो For Private And Personal Use Only

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