________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
८।२२-२४]
आठवाँ अध्याय अनुभव कहते हैं। आस्रवकी विशेषतामें कारणभूत तीव्र, मन्द और मध्यम भावोंसे कर्मों के विपाकमें विशेषता होती है । और द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावके निमित्तसे विपाक नाना प्रकारका होता है। शुभ परिणामों के प्रकर्ष होनेपर शुभ प्रकृतियोंका अधिक और अशुभ प्रकृतियोंका कम अनुभाग होता है । और अशुभ परिणामोंके प्रकर्ष होनेपर अशुभ प्रकृतियोंका अधिक और शुभ प्रकृतियोंका कम अनुभाग होता है । कर्मोंका अनुभाग दो प्रकार से होता है-स्वमुख अनुभाग और परमुख अनुभाग। सब मूल प्रकृतियोंका अनुभाग स्वमुख ही होता है जैसे मतिज्ञानावरणका अनुभाग मतिज्ञानावरणरूपसे ही होगा। किन्तु आयुकर्म, दर्शनमोहनीय ओर चारित्र मोहनीयको छोड़कर अन्य कर्मोंकी सजातीय उत्तर प्रकृतियोंका अनुभाग पर मुखे भी होता है। जिस समय जीव नरकायुको भोग रहा है उस समय तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और देवायु को नहीं भोग सकता है। और दर्शन मोहनीयको भोगनेवाला पुरुष चारित्र मोहनीयको नहीं भोग सकता तथा चारित्र मोहनीय को भोगनेवाला दर्शनमोहनीयको नहीं भोग सकता है। अतः इन प्रकृतियोंका स्वमुख अनुभाग ही होता है।
स यथानाम ।। २२ ॥ __वह अनुभागबन्ध कर्मों के नामके अनुसार होता है। अर्थात् ज्ञानावरणका फल ज्ञानका अभाव, दर्शनावरणका फल दर्शनका अभाव, वेदनीयका फल सुख और दुःख देना, मोहनीयका फल मोहको उत्पन्न करना, आयुका फल भवधारण कराना, नामका फल नाना प्रकारसे शरीर रचना, गोत्रका फल उच्च और नीचत्वका अनुभव और अन्तरायका फल विघ्नों का अनुभव करना है।
ततश्च निर्जरा ॥२३॥ फल दे चुकने पर कर्मोकी निर्जरा हो जाती है । निर्जरा दो प्रकारसे होती है—सविपाक निर्जरा और अविपाक निर्जरा। अपनी अपनी स्थितिके अनुसार कर्मोंको फल देनेके बाद
आत्मासे निवृत्त हो जाने को सविपाक निर्जरा कहते हैं। और कर्मोकी स्थितिको पूर्ण होनेके पहिले ही तप आदिके द्वारा कर्मोंको उदयमें लाकर आत्मासे पृथक् कर देना अविपाक निर्जरा है। जैसे किसी आमके फल उसमें लगे लगे ही पककर नीचे गिर जाँय तो वह सविपाक निर्जरा है । और उन फलोंको पहिले ही तोड़कर पालमें पकानेके समान अविपाक निर्जरा है।
सूत्रमें आए हुए 'च' शब्दका तात्पर्य है कि 'तपसा निर्जरा 'च' इस सूत्रके अनुसार निर्जरा तपसे भी होतो है। यद्यपि निर्जराका वर्णन संवरके बाद होना चाहिये था लेकिन यहाँ संक्षेपके कारण निर्जराका वर्णन किया गया है। संवरके बादमें वर्णन करने पर 'विपाकोऽनुभवः' यह सूत्र पुनः लिखना पड़ता।
प्रदेशबन्धका स्वरूपनामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात् सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्व
नन्तानन्तप्रदेशाः ॥ २४ ॥ योगोंकी विशेषतासे त्रिकाल में आत्माके समस्त प्रदेशोंके साथ बन्धको प्राप्त होनेवाले, ज्ञानावरणादि प्रकृतियों के कारणभूत, सूक्ष्म और एक क्षेत्रमें रहनेवाले अनन्तानन्त पुद्गल परमाणुओंको प्रदेशबन्ध कहते हैं ।
For Private And Personal Use Only