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४७६ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार
[ ८.१७-२१ भाग है । पर्याप्तक चार इन्द्रिय जीवके नाम और गोत्रकी उत्कृष्ट स्थिति सौ सागरके सात भागों में से दो भाग है । असंझी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तक जीवके नाम और गोत्रकी उत्कृष्ट स्थिति हजार सागरके सात भागोंमें से दो भाग है। अपर्याप्तक एकेन्द्रियसे असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवों के नाम और गोत्रकी उत्कृष्ट स्थिति पर्याप्तक जीवोंकी उस्कृष्ट स्थितिमें से पल्यके असंख्यातवें भाग कम है।
आयु कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति
त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यायुषः ॥ १७ ॥ आयु कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागर है। यह स्थिति संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तक जीवके आयु कर्मकी है।
असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तक जीवके आयु कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति पत्यके असंख्यातवें भाग है क्योंकि असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण देवायु या नरकायुका बन्ध करता है । एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीव पूर्वकोटी आयुका बन्ध करके विदेह आदिमें उत्पन्न होते हैं।
वेदनीयको जघन्य स्थिति
अपरा द्वादशमुहूर्ता वेदनीयस्य ॥ १८ ॥ वेदनीय कर्मकी जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त अर्थात् चौबीस घड़ी है। इस स्थिति का बन्ध सूक्ष्मसांपराय गुणस्थानमें होता है।
पहिले ज्ञानावरणकी जघन्य स्थितिको बतलाना चाहिये था लेकिन क्रमका उल्लंघन सूत्रोंको संक्षेपमें कहनेके लिये किया गया है ।
नाम और गोत्रकी जघन्य स्थिति--
नामगोत्रयोरष्टौ ॥ १९॥ नाम और गोत्र कर्मकी जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त है। इस स्थितिका बन्ध भी दसवें गुणस्थानमें होता है।
शेष कर्मोंकी जघन्य स्थिति
शेषाणामन्तर्मुहुर्ता ॥ २०॥ ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय और आयु कमंकी जघन्य स्थिति अन्तमुहूर्त है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मकी जघन्य स्थितिका बन्ध दशमें गुणस्थानमें होता है। मोहनीयको जघन्य स्थितिका बन्ध नवमें गुणस्थानमें होता है । आयुकर्मकी जघन्य स्थितिका बन्ध संख्यात वर्षकी आयुवाले मनुष्य और तिर्यश्चोंके होता है।
अनुभव बन्धका स्वरूप
विषाकोऽनुभवः ॥२१॥ विशेष और नाना प्रकारसे कर्मों के उदयमें आनेको अनुभव या अनुभाग बन्ध कहते हैं। वि अर्थात् विशेष और विविध, पाक अर्थात् कर्मों के उदय या फल देनेको
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