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तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार
[८९ पर मिथ्यात्व आत्मामें उदासीनरूपसे अवस्थित रहता है और आत्माके श्रद्धान परिणाममें बाधा नहीं डाल सकता । लेकिन इसके उदयसे श्रद्धानमें चल आदि दोष उत्पन्न होते हैं । दर्शनमोहनीयकी इस अवस्थाका नाम सम्यक्त्व दर्शनमोहनीय है। जिसके उदयसे जीव सर्वज्ञ द्वारा प्रतिपादित मोक्षमार्गसे पराङ्मुख होकर तत्त्वोंका श्रद्धान न करे तथा हित और अहितका भी ज्ञान जिसके कारण न हो सके वह मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व और सम्यक्त्व दोनोंकी मिली हुई अवस्थाका नाम सम्यग्मिथ्यात्व । इस प्रकृतिके उदयसे आत्मामें मिश्ररूप परिणाम होते हैं। जिस प्रकार कोदो ( एक प्रकारका अन्न ) को धो डालनेसे उसकी कुछ मदशक्ति नष्ट हो जाती है और कुछ मदशक्ति बनी ही रहती है उसी प्रकार शुभपरिणामोंसे मिथ्यात्वकी कुछ फलदानशक्तिके नष्ट होजानेसे वही मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्वरूप हो जाता है।
जिसके उदयसे हँसी आवे वह हास्य है। जिसके उदयसे किसी ग्राम आदिमें रहने वाला जीव परदेश आदिमें जानेकी इच्छा नहीं करता है वह रति है। रतिके विपरीत इच्छा होना अरति है। जिसके उदयसे शोक या चिन्ता हो वह शोक है। जिसके उदयसे त्रास या भय उत्पन्न हो वह भय है। जिसके उदयसे जीव अपने दोषोंको छिपाता है और दूसरोंके दोषोंको प्रगट करता है वह जुगुप्सा है। जिसके उदयसे स्त्रीरूप परिणाम हो वह स्त्रीवेद है। जिसके उदयसे पुरुषरूप परिणाम हो वह पुवेद और जिसके उदयसे नपुंसक रूप भाव हों वह नपुंसकवेद है।
___ अन्य ग्रन्थों में वेदोंका लक्षण इस प्रकार बतलाया है-योनि, कोमलता, भयशील होना, 'मुग्धपना, पुरुषार्थशून्यता, स्तन और पुरुषभोगेच्छा ये सात भाव स्त्रीवेदके सूचक हैं । लिङ्ग, कठोरता, स्तब्धता, शौण्डीरता, दादी-मूछ, जबर्दस्तपना और स्त्रीभोगेच्छा ये सात पुंवेदके सूचक हैं । ऊपर जो स्त्रीवेद और पुरुषवेदके सूचक १४ चिह्न बताए हैं वे ही मिश्रित रूपमें नपुंसकवेदके परिचायक होते है।
अनन्त संसारका कारण होनेसे मिथ्यादर्शनको अनन्त कहते हैं। जो क्रोध, मान माया और लोभ मिथ्यात्वके बंधके कारण होते हैं वे अनन्तानुबन्धी हैं। अनन्तानुबन्धी कषायके उदयसे जीव सम्यग्दर्शनको प्राप्त नहीं कर सकता। जिसके उदयसे जीव संयम अर्थात् श्रावकके व्रतोंको पालन करने में असमर्थ हो वह अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया
और लोभ है। जिसके उदयसे जीव महाव्रतोंको धारण न कर सके वह प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ है। जो कषाय संयमके साथ भी रहती है लेकिन जिसके उदयसे अत्मामें यथाख्यातचारित्र नहीं हो सकता वह संज्वलन क्रोध,मान,माया और लोभ है।
सोलह कषायोंके स्वभावके दृष्टान्त इस प्रकार हैं । क्रोध चार प्रकारका होता है-१ पत्थरकी रेखाके समान, २ पृथिवीकी रेखाके समान, ३ धूलिरेखाके समान,
और ४ जलरेखाके समान । उक्त क्रोध क्रमसे नरक, तिर्यकच, मनुष्य और देवगतिके कारण होते हैं। मान चार प्रकारका होता है-१ पत्थरके समान, २ हड्डीके समान ३ काठके समान और ४ बेंतके समान । चार प्रकारका मान भी क्रम से नरकादि गतियोंका कारण होता है । माया भी चार प्रकारकी होती है-१ बाँसकी जड़के समान, २ मेढ़ के सींग के समान, ३ गोमूत्रके समान और ४ खुरपाके समान । चार प्रकारकी माया क्रमसे नरकादि गतियोंका कारण होती है । लोभ भी चार प्रकारका होता है-१ किरमिचके रंगके समान, २ रथके मल अर्थात् ओंगतके समान, ३ शरीरके मलके समान और ४ हल्दीके रंगके समान । चार प्रकारका लोभ भी क्रमसे नरकादि गतियोंका कारण होता है ।
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