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तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार
[ ७२.६ व्रतके भेद
देशसर्वतोऽणुमहती ॥ २॥ व्रतके दो भेद हैं-अणुवत ओर महात्रत। हिंसादि पापोंके एकदेशत्यागको अणुव्रत और सर्वदेशत्यागको महाव्रत कहते हैं । अणुव्रत गृहस्थोंके और महाव्रत मुनियों - के होते है।
व्रतोंकी स्थिरताकी कारणभूत भावनाओंका वर्णन
तत्स्थैर्यार्थ भावनाः पञ्च पश्च ।। ३ ।। __ जिस प्रकार उच्च औषधियाँ रसादिकी भावना देनेसे विशिष्ट गुणवाली हो जाती हैं उसी तरह अहिंसादि व्रतभी भावनाभावित होकर सत्फलदायक होते हैं। उन अहिंसा आदि व्रतोंकी स्थिरताके लिये प्रत्येक व्रतकी पाँच पाँच भावनाएँ हैं।
अहिंसाव्रतकी पाँच भावनाएँवाङ मनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकितपानभोजनानि पञ्च ॥ ४ ॥
वचनगुप्ति,मनोगुप्ति, ईर्यासमिति, आदाननिक्षेपणसमिति और आलोकितपानभोजन ये अहिंसाप्रतकी पाँच भावनाएं हैं।
वचनको वशमें रखना वचनगुप्ति और मनको वशमें रखना मनोगुप्ति हैं । चार हाथ जमीन देखकर चलना ईर्यासमिति है । भूमिको देख और शोधकर किसी वस्तुको रखना या उठाना आदाननिक्षेपणसमिति है। सूर्य के प्रकाशसे देखकर खाना और पीना आलोकितपानभोजन है।
सत्यव्रतकी पाँच भावनाएँक्रोधलोभभीरत्वहास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीचिभाषणं च पञ्च ।। ५॥
क्रोधप्रत्याख्यान, लोभप्रत्याख्यान, भीरुत्वप्रत्याख्यान, हास्यप्रत्याख्यान और अनुवीचिभाषण ये सत्यवतकी पाँच भावनाएँ हैं।
क्रोधका त्याग करना क्रोधप्रत्याख्यान है। लोभको छोड़ना लोभप्रत्याख्यान है। भय नहीं करना भयप्रत्याख्यान है। हास्यका त्याग करना हास्यप्रत्याख्यान है और निर्दोष वचन बोलना अनुवीचिभाषण है।
अचौर्यव्रतकी भावनाएँशून्यागारविमोचितावासपरोपरोधाकरणभैक्षशुद्धिसधर्माऽविसंवादाः पञ्च ॥ ६ ॥
शून्यागारावास, विमोचितावास, परोपरोधाकरण, भैक्षशुद्धि और सधर्माविसंवाद ये अचौर्य व्रतकी पाँच भावनाएं हैं।
पर्वत, गुफा, वृक्षकोटर, नदीतट आदि निर्जन स्थानों में निवास करना शून्यागारावास है। दूसरोंके द्वारा छोड़े हुए स्थानों में रहना विमोचितावास है। दूसरोंका उपरोध नहीं करना अर्थात् अपने स्थानमें ठहरनेसे नहीं रोकना परोपरोधाकरण है। आचारशास्त्रके अनुसार भिक्षाकी शुद्धि रखना भैक्षशुद्धि हैं। और सहधर्मी भाइयोंसे कलह नहीं करना सधर्माविसंवाद है।
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