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७।२२]
सातवाँ अध्याय और परिभोगमें आनेवाले पदार्थोंका परिमाण कर लेना उपभोगपरिभोगपरिमाण व्रत है। यद्यपि उपभोगपरिमाणव्रतमें त्याग नियत कालके लिये ही किया जाता है लेकिन मद्य मांस मधु केतकी नीमके फूल अदरख मूली पुष्प अनन्तकायिक छिद्रवाली शाक नल आदि वनस्पतियोंका त्याग यावज्जीवन के लिये ही कर देना चाहिये क्योंकि इनके भक्षणमें फल तो थोड़ा होता है और जीवोंकी हिंसा अधिक होती है। इसी प्रकार यान वाहन आदिका त्याग भी यथाशक्ति कुछ कालके लिये या जीवन पर्यन्त करना चाहिये।
संयमकी विराधना किये बिना जो भोजनको जाता है वह अतिथि है। अथवा जिसके प्रतिपदा, द्वितीया आदि तिथि नहीं है, जो किसी भी तिथिमें भोजनको जाता है वह अतिथि है। इस प्रकारके अतिथिको विशिष्ट भोजन देना अतिथिसंविभागवत है। अतिथिसंविभाग के चार भेद हैं-भिक्षादान, उपकरणदान, औषधदान और आवासदान । मोक्षमार्गमें प्रयत्नशील, संयममें तत्पर और शुद्ध संयमीके लिये निर्मल चित्तसे निर्दोष भिक्षा देनी चाहिये । इसी प्रकार पीछी,पुस्तक, कमण्डलु आदि धर्मके उपकरण, योग्य औषधि और श्रद्धापूर्वक निवासस्थान भी देना चाहिये।
'च' 'शब्द' से यहाँ जिनेन्द्रदेवका अभिषेक, पूजन आदिका भी ग्रहण करना चाहिये।
सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोगपरिभोगपरिमाण और अतिथिसंविभाग ये चारों, जिस प्रकार माता-पिताके वचन सन्तानको शिक्षाप्रद होते हैं उसी प्रकार अणुव्रतों. की शिक्षा देनेवाले अर्थात् उसकी रक्षा करनेवाले होनेके कारण शिक्षावत कहलाते हैं।
___ सल्लेखनाका वर्णन
मारणान्तिकी सल्लेखनां जोषिता ।। २२ ।। ___ मरणके अन्तमें होनेवाली सल्लेखनाको प्रीतिपूर्वक सेवन करनेवाला पुरुष गृहस्थ होता है। आयु, इन्द्रिय और बलका किसी कारणसे नाश हो जाना मरण है । इस प्रकारके मरणके समय गृहस्थको सल्लेखना करना चाहिये । समतापूर्वक काय और कषायों के कृश करनेको सल्लेखना कहते हैं। कायको कृश करना बाह्य सल्लेखना और कषायों को कृश करना अन्तरङ्ग सल्लेखना है।
प्रश्न- अर्थकी स्पष्टताके लिये 'जोषिता'के स्थानमें सेविता' शब्द क्यों नहीं रखा ?
उत्तर-अर्थ विशेषको बतलाने के लिये श्राचार्यने जोषिता शब्दका प्रयोग किया है। प्रीति पूर्वक सेवन करनेका नाम ही सल्लेखना है। प्रीतिके बिना बलपूर्वक सल्लेखना नहीं कराई जाती है। किन्तु गृहस्थ संन्यासमें प्रीतिके होने पर स्वयं ही सल्लेखनाको करता है। अतः प्रीतिपूर्वक सेवन अर्थ में जुषी धातुका प्रयोग बहुत उपयुक्त है। ___प्रश्न-स्वयं विचारपूर्वक प्राणों के त्याग करनेमें हिंसा होनेसे सल्लेखना करने वालेको आत्मघातका दोष होगा ?
उत्तर--सल्लेखना में आत्मघातका दोष नहीं होता है क्योंकि प्रमत्तयोगसे प्राणों के विनाश करनेको हिंसा कहते है और जो विचारपूर्वक सल्लेखनाको करता है उसके राग द्वेपादिके न होनेसे प्रमत्त योग नहीं होता है । अतः सल्लेखना करनेमें आत्मघातका दोष संभव नहीं है। राग, द्वेष, मोह आदिसे संयुक्त जो पुरुष विष, शस्त्र, गलपाश, अग्निप्रवेश, कूपपतन आदि प्रयोगों के द्वारा प्राणों का त्याग करता है वह आत्मघाती है। कहा भी है कि--
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