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४५८ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार
[७।२३-२४ “जो आत्मघाती व्यक्ति हैं वे अति अन्धकारसे आवृत असूर्यलोकमें अनेक प्रकार के दुःख भोगते हैं ?"
जिनागममें कहा है कि-"रागादिका उत्पन्न न होना ही अहिंसा है, रागादिकी उत्पत्ति ही हिंसा है।"
सल्लेखनामें आत्मघात न होनेका एक कारण यह भी है कि वणिक्को अपने घर के विनाशकी तरह प्रत्येक प्राणीको मरण अनिष्ट है। वणिक् बहुमूल्य द्रव्योंसे भरे हुए अपने घरका विनाश नहीं चाहता है। लेकिन किसी कारणसे विनाशके उपस्थित होने पर वणिक उस घरको छोड़ देता है अथवा ऐसा प्रयत्न करता है जिससे द्रव्योंका नाश न हो। उसी प्रकार ब्रत और शीलका पालन करनेवाला गृहस्थ भी व्रत और शीलके आश्रय स्वरूप शरीरका विनाश नहीं चाहता है। लेकिन शरीरविनाशके कारण उपस्थित होने पर संयमका घात न करते हुए धीरे धीरे शरीरको छोड़ देता है अथवा शरीरके छोड़नेमें असमर्थ होने पर और कायविनाश तथा आत्मगुणविनाशके युगपत् उपस्थित होने पर आत्माके गुणोंका विनाश जिस प्रकार न हो उस प्रकार प्रयत्न करता है। अतः सल्लेखना करनेवालेको आत्मघातका पाप किसी भी प्रकार संभव नहीं है । गृहस्थोंकी तरह मुनियोंको भी आयुके अन्तमें समाधि-मरण बतलाया है।
सम्यग्दर्शन के अतिचारशङ्काकाङ्क्षाविचिकित्सान्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दृष्टेरतिचाराः ।। २३ ।।
शंका, कांक्षा,विचिकित्सा, अन्यदृष्टिप्रशंसा और अन्यदृष्टिसंस्तव ये सम्यग्दर्शन के पाँच अतिचार हैं।
जिनेन्द्र भगवान्के वचनोंमें सन्देह करना-जैसे निर्ग्रन्थोंके मुक्ति बतलाई है उसी प्रकार क्या सग्रन्थों को भी मुक्ति होती है ? अथवा इसलोकभय, परलोकभय, आदि सात भय करना शंका है । इसलोक और परलोकके भोगोंकी वाञ्छा करना कांक्षा है। रत्नत्रयधारकोंके मलिन शरीरको देखकर यह कहना कि ये मुनि स्नान आदि नहीं करते इत्यादि रूपसे ग्लानि करना विचिकित्सा है । मिथ्यादृष्टियोंके ज्ञान और चारित्रगुणकी मनसे प्रशंसा करना अन्यदृष्टिप्रशंसा है। और मिथ्यादृष्टिके विद्यमान और अविद्यमान गुणोंको वचन से प्रकट करना अन्यदृष्टिसंस्तव है।
प्रश्न-सम्यग्दर्शन के आठ अंग हैं अतः अतिचार भी आठ ही होना चाहिये ।
उत्तर-व्रत और शीलों के पाँच पाँच ही अतिचार बतलाये हैं अतः अतिचारों के वर्णनमें सम्यग्दर्शनके पॉच ही अतीचार कहे गये हैं। अन्य तीन अतिचारोंका अन्यदृष्टिप्रशंसा और संस्तवमें अन्तर्भाव हो जाता है जो मिथ्यादृष्टियोंकी प्रशंसा और स्तुति करता है वह मूढदृष्टि तो है ही, वह रत्नत्रयधारकोंके दोषोंका उपगृहन ( प्रगट नहीं करना ) नहीं करता है, स्थितिकरण भी नहीं करता है, उससे वात्सल्य और प्रभावना भी संभव नहीं है । अतः अन्यदृष्टिप्रशंसा और संस्तवमें अनुपगूहन आदि दोषोंका अन्तर्भाव हो जाता हैं।
व्रत और शीलोंके अतिचार
व्रतशीलेषु पञ्च पञ्च यथाक्रमम् ।। २४ ॥ पाँच अणुव्रत और सात शीलों के क्रमसे पाँच पाँच अतिचार होते हैं। यद्यपि व्रतोंके ग्रहण करनेसे ही शीलोंका ग्रहणहो जाता है लेकिन शीलका पृथक् ग्रहण व्रतोंसे शीलों में विशेषता
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