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७२०-२१]
सातवाँ अध्याय उत्तर- नैगम संग्रह और व्यवहारनयकी अपेक्षा गृहस्थ भी व्रती ही है। जैसे घरमें या घरके एक कमरेमें निवास करनेवाले व्यक्तिको नगरमें रहनेवाला कहा जाता है उसी प्रकार परिपूर्ण व्रतोंके पालन न करने पर भी एकदेशव्रत पालन करनेके कारण वह व्रती कहलाता है। पाँच पापोंमें से किसी एक पापका त्याग करनेवाला व्रती नहीं है किन्तु पाँचो पापोंके एकदेश या सर्वदेश त्याग करनेवालेको व्रती कहते हैं।
___ अगारीका लक्षण
अणुव्रतोज्गारी ।। २० ॥ हिंसादि पापोंके एकदेश त्याग करनेवालेको अगारी या गृहस्थ कहते हैं। __अणुव्रतके पाँच भेद हैं-अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परिग्रहपरिमाणाणुव्रत । संकल्प पूर्वक त्रस जीवोंकी हिंसाका त्याग करना अहिंसाणुव्रत है । लोभ,मोह, स्नेह आदिसे अथवा घरके विनाश होनेसे या ग्राममें वास करनेके कारण असत्य नहीं बोलना सत्याणुव्रत है । संक्लेशपूर्वक लिया गया अपना भी धन दूसरों को पीड़ा करने वाला होता है, और राजाके भय आदिसे जिस धनका त्याग कर दिया है ऐसे धनको अदत्त कहते हैं। इस प्रकारके धनमें अभिलाषाका न होना अचौर्याणुव्रत है। परिगृहीत या अपरिगृहीत परस्त्रीमें रतिका न होना ब्रह्मचर्याणुव्रत है और क्षेत्र वास्तु धन धान्य आदि परिग्रहका अपनी आवश्यकतानुसार परिमाण कर लेना परिग्रहपरिमाणाणुत्रत है।
सात शीलवतोंका वर्णनदिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकप्रोषधोपवासोपभोगपरिभोग
परिमाणातिथिसंविभागवतसम्पन्नश्च ॥ २१ ॥ वह व्रती दिव्रत, देशत्रत, अनर्थदण्डव्रत इन तीन गुणवतोंसे और सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोगपरिभोगपरिमाण और अतिथिसंविभागवत इन चार शिक्षाव्रतोंसे सहित होता है। 'च' शब्दसे व्रती सल्लेखनादिसे भी सहित होता है।।
दशों दिशाओं में हिमाचल, विन्ध्याचल आदि प्रसिद्ध स्थानोंकी मर्यादा करके उससे बाहर जानेका मरण पर्यन्त के लिये त्याग करना दिग्बत है। दिग्नत की मर्यादाके बाहर स्थावर और त्रस जीवोंकी हिंसाका सर्वथा त्याग होनेसे गृहस्थके भी उतने क्षेत्रमें महाव्रत होता है । दिग्जतके क्षेत्रके बाहर धनादिका लाभ होनेपर भी मनकी अभिलाषाका अभाव होनेसे लोभका त्याग भी गृहस्थके होता है। दिनतके क्षेत्रमें से भी ग्राम नगर नदी वन घर आदिसे निश्चित कालके लिये बाहर जानेका त्याग करना देशवत है। देशव्रत दिनतके अन्तर्गत ही है। विशेष रूपसे पापके स्थानों में, व्रतभङ्ग होने योग्य स्थानोंमें और खुरासान मूलस्थान मखस्थान हिरमजस्थान आदि स्थानों में जानेका त्याग करना देशव्रत है। देशत्रतके क्षेत्रसे बाहर भी दिनतकी तरह ही महाव्रत और लोभका त्याग होता है।
__ प्रयोजन रहित पापक्रियाओं का त्याग करना अनर्थदण्डन त है। अनर्थदण्डके पाँच भेद हैं-अपध्यान, पापोपदेश, प्रमादाचरित, हिंसादान और दुःश्रुति ।
द्वेषके कारण दूसरोंकी जय पराजयवध बन्धन द्रव्यहरण आदि और रागके कारण दूसरेकी खी आदिका हरण कैसे हो इस प्रकार मनमें विचार करना अपध्यान है ।
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