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७।१६-१७]
सातवाँ अध्याय कुशीलका लक्षण
मैथुनमब्रह्म ॥ १६ ॥ मथुनको अब्रह्म अर्थात् कुशील कहते हैं। चारित्रमोहनीय कर्म के उदयसे रागपरिणाम सहित स्त्री और पुरुषको परस्पर स्पर्श करने की इच्छाका होना या स्पर्श करनेके उपायका सोचना मैथुन है। रागपरिणामके अभावमें स्पर्श करने मात्रका नाम कुशील नहीं है। लोक और शास्त्रमें भी यही माना गया है कि रागपरिणामके कारण स्त्री और पुरुषकी जो चेष्टा है वही मैथुन है। अतः प्रमत्तयोगसे स्त्री और पुरुषमें अथवा पुरुष और पुरुषों रतिसुखके लिये जो चेष्टा है वह मैथुन है।
जिसकी रक्षा करने पर अहिंसा आदि गुणोंकी वृद्धि हो वह ब्रह्म है और ब्रह्मका अभाव अब्रह्म है । मथुनको अब्रह्म इसलिये कहा है कि मैथुनमें अहिंसादि गुणोंकी रक्षा नहीं होतो है। मैथुन करनेवाला जीव हिंसा करता है। मथुन करनेसे योनिमें स्थित करोड़ों जीवोंका घात होता है। मैथुनके लिये झूठ भी बोलना पड़ता है, अदत्तादान और परिग्रहका भी ग्रहण करना पड़ता है। अतः मैथुनमें सब पाप अन्तर्हित हैं।
परिग्रहका लक्षण
मूर्छा परिग्रहः ॥ १७॥ मुर्छाको परिग्रह कहते हैं। गाय भैंस मणि मुक्ता आदि चेतन और अचेतन रूप बाह्य परिग्रह और राग द्वेष आदि अन्तरङ्ग परिग्रहके उपार्जन रक्षण और वृद्धि आदिमें मनकी अभिलाषा या ममत्वका नाम मूर्छा है। वात पित्त श्लेष्म आदिसे उत्पन्न होने वाली अचेतन स्वभावरूप मूर्छाका यहाँ ग्रहण नहीं किया गया है। .
प्रश्न-यदि मनकी अभिलाषाका नाम ही परिग्रह है तो बाह्य पदार्थ परिग्रह नहीं होंगे।
उत्तर-मनकी अभिलाषाको प्रधान होनेके कारण अन्तरङ्ग परिग्रहको ही मुख्य रूपसे परिग्रह कहा गया है । बाह्य पदार्थभी मूर्छाके कारण होनेसे परिग्रह ही हैं। ममत्व या मू का नाम परिग्रह होनेसे आहार भय आदि संज्ञायुक्त पुरुष भी परिग्रहसहित है क्योंकि संज्ञाओंमें ममत्यबुद्धि रहती है।
प्रश्न-सम्यग्ज्ञान दर्शन चारित्र आदि भी परिग्रह हैं या नहीं ?
उत्तर-जिसके प्रमत्तयोग होता है वही परिग्रहसहित होता है और जिसके प्रमत्तयोग नहीं है वह अपरिग्रही है। सम्यग्ज्ञान दर्शन चारित्र आदिसे युक्त पुरुष प्रमादरहित और निर्मोह होता है, उसके मूर्छा भी नहीं होती है अतः वह परिग्रहरहित ही है। दूसरी बात यह है कि ज्ञान दर्शन आदि आत्माके स्वभाव होनेसे अहेय हैं और रागद्वेषादि अनात्मस्वभाव होनेसे हेय हैं। अतः राग द्वेषादि ही परिग्रह हैं न कि ज्ञान दर्शनादि । ऐसा कहा भी है कि जो हेय हो वही परिग्रह है।
___ परिग्रहवाला पुरुष हिंसा आदि पाँचों पापोंमें प्रवृत्त होता है और नरकादि गतियोंके दुःखोंको भोगता है।
अन्तरङ्ग परिग्रहके चौदह भेद हैं-मिथ्यात्व, वेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जूगुप्सा क्रोध, मान, माया, लोभ, राग और द्वेष | बाह्य परिग्रह के दश भेद हैं-क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद, सवारी, शयनासन, कुप्य और भाण्ड ।
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