________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
४४६ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार
[६१२६-२७ उच्च गोत्रके आस्रवतद्विपर्ययो नीचैर्वृत्त्यनुत्सेको चोत्तरस्य ॥२६॥ परप्रशंसा, आत्मनिन्दा, सद्गुणोभावन, असद्गुणोच्छादन, नीचैर्वृत्ति और अनुत्सेक ये उच्च गोत्रके आस्रव हैं । उच्च गुणवालोंकी विनय करनेको नीचैर्वृत्ति या नम्रवृत्ति कहते हैं । ज्ञान,तप आदि गुणोंसे उत्कृष्ट होकर भी मद न करना अनुत्सेक है।
'च' शब्दसे आठ मदोंका परिहार, दूसरोंका अपमान प्रहास और परिवाद न करना, गुरुओंका तिरस्कार न करना, गुरुओंका सन्मान अभ्युत्थान और गुणवर्णन करना, और मृदुभाषण आदि भी उच्च गोत्र के प्रास्रव हैं।
अन्तरायके आनव
विघ्नकरणमन्तरायस्य ॥ २७ ॥ दूसरोंके दान, लाभ,भोग, उपभोग और वीर्यमें विघ्न करना अन्तरायके आस्रव हैं।
दानकी निन्दा करना, द्रव्यसंयोग, देवोंको चढ़ाई गई नैवेद्यका भक्षण, परके वीर्यका अपहरण, धर्मका उच्छेद, अधर्मका आचरण, दूसरोंका निरोध, बन्धन, कर्णछेदन, गुह्यछेदन, नाक काटना और आँखका फोड़ना आदि भी अन्तरायके आस्रव हैं।
विशेष तत्प्रदोष, निन्हव आदि ज्ञानावरण आदि कर्मों के जो पृथक पृथक् आस्रय बतलाए हैं वे अपने अपने कर्म के स्थिति और अनुभाग बन्धके ही कारण होते हैं । उक्त आस्रव आयु कर्मको छोड़कर (क्योंकि आयु कर्मका बन्ध सदा नहीं होता है ) अन्य सब कर्माके प्रकृति और प्रदेश बन्धके कारण समान रूपसे होते हैं।
छठवाँ अध्याय समाप्त।
For Private And Personal Use Only