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६।२५ छठवाँ अध्याय
४४५ द्वारा प्रात्माके धर्मकी वृद्धि करना और चार प्रकारके संघके दोषोंको प्रगट नहीं करना उपगृहन है । क्रोध, मान, माया और लोभादिक धर्म के विनाशक कारण रहने पर भी धर्मसे च्युत नहीं होना स्थितिकरण है। जिनशासनमें सदा अनुराग रखना वात्सल्य है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रके द्वारा आत्माका प्रकाशन और जिनशासनकी उन्नति करना 'प्रभावना है। सम्यग्दर्शनके इन आठ अंगोंका का सद्भाव तथा तीन मूढ़ता, छह अनायतन
और आठ मदोंका अभाव, चमड़ेके पात्र में रक्खे हुये जलको नहीं पीना और कन्दमूल, कलिङ्ग, सूरण, लशुन आदि अभक्ष्य वस्तुओं को भक्षण न करना आदिको दर्शनविशुद्धि कहते हैं।
रत्नत्रय और रत्नत्रयके धारकोंका महान् आदर और कषायका अभाव विनयसम्पन्नता है। पाँच व्रत और सात शीलों में निर्दोष प्रवृत्ति करना शीलतेष्वनतिचार है। जीवादिपदार्थों के स्वरूपको निरूपण करनेवाले ज्ञान में निरन्तर उद्यम करना अभीक्ष्ण-ज्ञानोपयोग है। संसारके दुखोंसे भयभीत रहना संवेग है। अपनी शक्तिके अनुसार अाहार, भय और ज्ञानका पात्रके लिये दान देना शक्तितस्त्याग है । अपनी शक्तिपूर्वक जैन शासनके अनुसार कायक्लेश करना शक्तितस्तप है। जैसे भाण्डागारमें आग लग जाने पर किसी भी उपायसे उसका शमन किया जाता है उसी प्रकार ब्रत और शीलसहित यतिजनोंके ऊपर किसी निमित्तसे कोई विघ्न उपस्थित होने पर उस विघ्नको दूर करना साधुसमाधि है। निर्दाप विधिसे गुणवान् पुरुषोंके दोषोंको दूर करना वैयावृत्त्य है । अर्हन्तका अभिषेक, पूजन, गुणस्तवन, नामको जाप आदि अर्हद्भक्ति है। प्राचार्योंको नवीन उपकरणों का दान, उनके सम्मुखगमन, आदर, पादपूजन, सम्मान और मनःशुद्धियुक्त अनुरागका नाम आचार्यभक्ति है। इसी प्रकार उपाध्यायोंकी भक्ति करना बहुश्रुतभक्ति है । रत्नत्रय आदिके प्रतिपादक आगममें मनःशुद्धि युक्त अनुराग का होना प्रवचनक्ति है। सामायिक स्तुति.चौबीस तीथकरकी स्तुति-वन्दना,एक तीर्थकर स्तुति,प्रतिक्रमण-कृतदोष निराकरण, प्रत्याख्यान नियतकाल और आगामी दोषोंका परिहार और कायोत्सर्ग-शरीरसे ममत्वका छोड़नाइन छह आवश्यकों में यथाकाल प्रवृत्ति करना आवश्यकापरिहाणि है। ज्ञान, दान, जिनपूजन और तपके द्वारा जिन धर्मका प्रकाश करना मार्गप्रभावना है। गाय और बछड़ेके समान प्रवचन और साधर्मी जनों में स्नेह रखना प्रवचनवत्सलत्व है । ये सालह भावनाएँ तीर्थकर प्रकृतिके बन्धका कारण होती हैं।
नीच गोत्रके आस्रवपरात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य ॥ २५ ॥
दुमरोंकी निन्दा और अपनी प्रशंसा करना, विदामान गुणोंका विलोप करना और अविद्यमान गुणोंको प्रकट करना ये नीच गोत्र के आस्रव हैं।
'च' शब्दसे जातिमद, कुलमद, बलमद, रूपमद, श्रुतमद, ज्ञानमद, ऐश्वर्यमद और तपमद-ये आठमद, दूसरोंका अपमान, दूसरोंकी हँसी करना, दूसरोंका परिवादन, गुरुओंका तिरस्कार, गुरुओंसे उट्टन-टकराना, गुरुओंके दोपोंको प्रगट करना, गुरुओं का विभेदन, गुरुओंको स्थान न देना, गुरुओंका अपमान, गुरुओंकी भर्त्सना, गुरुओंसे असभ्य वचन करना। गुरुओंकी स्तुति न करना और गुरुओंको देखकर खड़े नहीं होना आदि भी नीच गोत्रके आस्रव हैं।
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