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६।११] छठवाँ अध्याय
४३९ आसादनमें ज्ञानकी विनय आदि नहीं की जाती है लेकिन उपघातमें ज्ञानको नाश करनेका ही अभिप्राय रहता है अतः इनमें भेद स्पष्ट है।
प्रश्न-पहिले ज्ञान और दर्शनका प्रकरण नहीं होनेसे इस सूत्रमें आए हुए 'तत्' शब्दके द्वारा ज्ञान और दर्शनका ग्रहण कैसे किया गया ? ___उत्तर-यद्यपि पहिले ज्ञान और दर्शनका प्रकरण नहीं है फिर भी सूत्रमें 'ज्ञानदर्शनावरणयोः' शब्दका प्रयोग होनेसे 'तत्' शब्दके द्वारा ज्ञान और दर्शनका ग्रहण किया गया है। अथवा ज्ञानावरण और दर्शनावरणके आस्रव कौन हैं ऐसे किसीके प्रश्नके उत्तर में यह सूत्र बनाया गया अतः तत् शब्दके द्वारा ज्ञान और दर्शनका ग्रहण किया गया है।
एक कारणके द्वारा अनेक कार्य भी होते हैं अतः ज्ञानके विषयमें किये गये प्रदोष आदि दर्शनावरणके भी कारण होते हैं । अथवा ज्ञानविषयक प्रदोष आदि ज्ञानावरणके और दर्शनविषयक प्रदोष आदि दर्शनावरणके कारण होते हैं।
आचार्य और उपाध्यायके साथ शत्रुता रखना, अकालमें अध्ययन करना, अरुचिपूर्वक पढ़ना, पढ़नेमें आलस करना, व्याख्यान को अनादरपूर्वक सुनना, जहाँ प्रथमानुयोग बाँचना चाहिये वहाँ अन्य कोई अनुयोग बाँचना, तीर्थोपरोध, बहुश्रुतके सामने गर्व करना, मिथ्योपदेश, बहुश्रुतका अपमान, स्वपक्षका त्याग, परपक्षका ग्रहण, ख्याति-पूजा आदिकी इच्छासे असम्बद्ध प्रलाप, सूत्रके विरुद्ध व्याख्यान, कपटसे ज्ञानका ग्रहण करना, शाख बेचना, और प्राणातिपात आदि ज्ञानावरणके आस्रव हैं।
देव, गुरु आदिके दर्शनमें मात्सर्य करना, दर्शनमें अन्तराय करना, किसीकी चक्षुको उखाड़ देना, इन्द्रियाभिमतित्व-इन्द्रियोंका अभिमान करना,अपने नेत्रोंका अहङ्कार,दीर्घनिद्रा, अतिनिद्रा, आलस्य, नास्तिकता, सम्यग्दृष्टियों को दोष देना, कुशास्त्रों की प्रशंसा करना, मुनियोंसे जुगुप्सा आदि करना और प्राणातिपात आदि दर्शनावरणके आस्रव हैं ।
असातावेदनीयके आस्रवदुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यसद्वेद्यस्य ।। ११ ॥
स्व, पर तथा दोंनोंमें किए जानेवाले दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध और परिदेवन आसातावेदनीयके आस्रव हैं ।
पीड़ा या वेदनारूप परिणामको दुःख कहते हैं। उपकार करनेवाली चेतन या अचेतन वस्तुके नष्ट हो जानेसे विकलता होना शोक है। निन्दासे, मानभङ्गसे या कर्कश वचन आदिसे होनेवाले पश्चात्तापको ताप कहते हैं। परितापके कारण अश्रुपातपूर्वक, बहुविलाप और अङ्ग विकारसे सहित स्पष्ट रोना आक्रन्दन है। आयु, इन्द्रिय आदि दश प्रकारके प्राणोंका वियोग करना वध है । स्व और परोपकारकी इच्छासे संक्लेशपरिणामपूर्वक इस प्रकार रोना कि सुननेवालेके हृदयमें दया उत्पन्न हो जाय परिदेवन है।
यद्यपि शोक आदि दुःखसे पृथक् नहीं हैं लेकिन दुःख सामान्य वाचक है अतः दुःखकी कुछ विशेष पर्याय बतलानेके लिये शोक आदिका पृथक् ग्रहण किया है।
प्रश्न-यदि आत्म, पर और उभयस्थ दुःख, शोक आदि असातावेदनीयके आस्रव हैं तो जैन साधुओं द्वारा केशोंका उखाड़ना, उपवास, आतपनयोग आदि स्वयं करना और दूसरोंको करनेका उपदेश देना आदि दुःखके कारणों को क्यों उचित बतलाया है ?
उत्तर-अन्तरङ्गमें क्रोधादिके आवेशपूर्वक जो दुःखादि होते हैं वे असातावेदनीयके
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