________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
स्याद्वाद
बुद्ध
है। अब आप विचारें कि संजयने जब लोकके शाश्वत और अशाश्वत आदिके बारेमें स्पष्ट कह दिया कि मैं जानता होऊँ तो बताऊँ और बुद्धने कह दिया कि इनके चक्करमें न पड़ो, इसका जानना उपयोगी नहीं है, तब महावीरने उन प्रश्नोंका वस्तुस्थितिके अनुसार यथार्थ उत्तर दिया और शिष्योंकी जिज्ञासा का समाधान कर उनको बौद्धिक दीनतासे त्राण दिया। इन प्रश्नोंका स्वरूप इस प्रकार है-- प्रश्न संजय
महावीर १. क्या लोक शाश्वत है ? मैं जानता होऊँ तो इसका जानना अनु- हाँ, लोक द्रव्य दष्टिसे
बताऊँ, (अनिश्चय, पयोगी है (अव्याकृत शाश्वत है, इसके किसी भी विक्षेप) अकथनीय) सत्का सर्वथा नाश नहीं
हो सकता। २. क्या लोक अशाश्वत है ?
हाँ, लोक अपने प्रतिक्षण भावी परिवर्तनोंकी दृष्टिसे अशाश्वत है, कोई भी
परिवर्तन दो क्षणस्थायी नहीं ३. क्या लोक शाश्वत और अ
है। हो, दोनों दृष्टिकोणोंसे शाश्वत है?
क्रमशः विचार करने पर लोकको शाश्वत भी कहते हैं
और अशाश्वत भी। ४. क्या लोक दोनों रूप नहीं है ,
हाँ, ऐसा कोई शब्द नहीं जो अनुभय है ?
लोकके परिपूर्ण स्वरूपको एक साथ समग्र भावसे कह सके। अतः पूर्णरूप से वस्तु अनुभय है, अव
क्तव्य है, अनिर्वचनीय है। संजय और बुद्ध जिन प्रश्नोंका समाधान नहीं करते, उन्हें अनिश्चय या अव्याकृत कहकर अपना पिण्ड छुड़ा लेते हैं, महावीर उन्हींका वास्तविक युक्तिसंगत समाधान करते हैं। इस पर भी राहुलजी, और स्व० धर्मानन्द.कोसम्बी आदि यह कहनेका साहस करते हैं कि 'संजयके अनुगायियोंके लुप्त हो जानेपर . संजयके वादको ही जैनियोंने अपना लिया।' यह तो ऐसाही है जैसे कोई कहे कि "भारतमें रही परतन्त्रताको ही परतन्त्रताविधायक अंग्रेजोंके चले जानेपर भारतीयोंने उसे अपरन्त्रता (स्वतन्त्रवा) रूपसे अपना लिया है, क्योंकि अपरतन्त्रतामें भी ‘प र तत्र ता' ये पाँच अक्षर तो मौजूद हैं ही। या हिंसाको ही बद्ध और महावीरने उसके अनुयायियोंके लुप्त होनेपर अहिंसारूपसे अपना लिया है क्योंकि अहिंसा में भी 'हिं सा' ये दो अक्षर हैं ही।" यह देखकर तो और भी आश्चर्य होता है कि-आप (पृ० ४८४) अनिश्चिततावादियोंकी सूचीमें संजयके साथ निग्गंठ नाथपुत्र (महावीर) का नाम भी लिख जाते हैं, तथा (प० ४९१) संजयको अनेकान्तवादी भी। क्या इसे धर्मकीर्तिके शब्दोंमें 'धिग् व्यापकं तमः' नहीं कहा जा सकता ?
'स्यात्' शब्दके प्रयोगसे साधारणतया लोगोंको संशय अनिश्चय या संभावनाका भ्रम होता है। पर यह तो भाषाकी पुरानी शैली है उस प्रसंगकी, जहाँ एक वादका स्थापन नहीं होता। एकाधिक भेद या विकल्पकी सूचना जहाँ करनी होती है वहाँ 'स्यात्' पदका प्रयोग भाषाकी शैलीका एक रूप रहा है जैसा कि मज्झिमनिकायके महाराहुलोवाद सुत्तके निम्नलिखित अवतरणसे ज्ञात होता है-'कतमा राहुल च संजो
For Private And Personal Use Only