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तृतीय अध्याय
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समान होता है । वहाँ के प्राणी दो दिन के बाद विभीतक ( बहेरे) फलके बराबर भोजन करते हैं । कल्पवृक्ष बीस योजन ऊँचे होते हैं । अन्य वर्णन जघन्य भोगभूमिके समान ही है ।
निषेध नील पर्वत तथा पूर्व और पश्चिम समुद्रके बीच में विदेह क्षेत्र है । विदेह क्षेत्रके चार भाग हैं - १ मेरु पर्वत से पूर्व में पूर्व विदेह, २ पश्चिम में अपरविदेह, ३ दक्षिण में देवकुरु ४ और उत्तर में उत्तरकुरु । विदेह क्षेत्रमें कभी जिनधर्मका विनाश नहीं होता है, धर्मकी प्रवृत्ति सदा रहती है और वहाँसे मरकर मनुष्य प्रायः मुक्त हो जाते हैं, अतः इस क्षेत्र का नाम विदेह पड़ा । विदेह क्षेत्र में तीर्थंकर सदा रहते है । यहाँ भरत और ऐरावत क्षेत्रके समान चौबीस तीर्थंकर होनेका नियम नहीं है। देवकुरु, उत्तरकुरु, पूर्व विदेह और अपर विदेहके कोने में गजदन्त नामके चार पर्वत हैं। इनकी लम्बाई तीस हजार दो सौ नव योजन, चौड़ाई पाँच सौ योजन और ऊँचाई चार सौ योजन है। ये गजदन्त मेरुसे निकले हैं। इनमे से दो गजदन्त निषधपर्वतकी ओर और दो गजदन्त नील पर्वतकी ओर गये हैं । दक्षिणदिग्वर्ती गजदन्तों के बीच में देवकुरु नामक उत्तम भोगभूमि है । देवकुरुके मध्य में एक शाल्मलि वृक्ष है । उत्तरदिग्वर्ती गजदन्तों के बीच में उत्तरकुरु है ।
उत्तर भोगभूमि में शरीर की ऊँचाई तीन कोस, आयु तीन पल्य और वर्ण उदीयमान सूर्य के समान है। वहाँ के मनुष्य तीन दिनके बाद बेरके बराबर भोजन करते हैं । कल्पवृक्षों की ऊँचाई ती गती है । मेरुके चारों ओर भद्रशाल नामका वन है । उस वनसे पूर्व और पश्चिममें निषध और नीलपर्वतसे लगी हुई दो वेदी हैं ।
पूर्वविदेह में सीता नदीके होनेसे इस के दो भाग हो गये हैं, उत्तर भाग और दक्षिण भाग । उत्तर भाग में आठ क्षेत्र हैं ।
वेदी और वक्षार पर्वत बीच में एक क्षेत्र है । वक्षार पर्वत और दो विभङ्ग नदियों के दूसरा क्षेत्र है । विभंग नदी और वक्षार पर्वतके मध्य में तीसरा क्षेत्र है । वक्षार पर्वत और दो विभंग नदियोंके बीच में चौथा क्षेत्र है । विभंग नदी और वक्षार पर्वतके बीच में पाँचवा क्षेत्र है । वक्षार पर्वत और दो विभंग नदियों के अन्तराल में छठवाँ क्षेत्र है । विभंग नदी और वक्षार पर्वतके बीच में सातवाँ क्षेत्र है। वक्षार पर्वत और वनवेदिका के मध्य
आठवाँ क्षेत्र है। इस प्रकार चार वक्षार पर्वतों, तीन विभंग नदियों और दो वेदियों के नौ खण्डों से विभक्त होकर आठ क्षेत्र हो जाते हैं । इन आठ क्षेत्रों के नाम इस प्रकार हैं-१ कच्छा, २ सुकच्छा, ३ महाकच्छा, ४ कच्छकावती ५ आवर्ता ६ लाङ्गलावर्ता ७ पुष्कला और = पुष्कलावती । इन क्षेत्रों के बीच में आठ मूल पत्तन हैं-१ क्षेमा, २ क्षेमपुरी, ३ अरिष्टा, ४ अरिष्टपुरी ५ खड्गा, ६ मञ्जूषा ७ ओषधी और पुण्डरीकिणी । प्रत्येक क्षेत्र के बीच में गंगा और सिन्धु नामक दो दो नदियाँ हैं जो नील पर्वतसे निकली हैं और सीता नदीमें मिल गई हैं । प्रत्येक क्षेत्र में एक एक विजयाद्ध पर्वत है । प्रत्येक क्षेत्र में विजयार्ध पर्वतसे उत्तरकी ओर और
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पर्वत दक्षिण की ओर वृषभगिरि नामक पर्वत है। इस पर्वतपर चक्रवर्ती अपनी प्रसिद्धि लिखते हैं । आठों ही क्षेत्रों में छह छह खण्ड हैं- पाँच पाँच म्लेच्छ और एक एक आर्य खण्ड | आठों ही आर्यखण्डों में एक एक उपसमुद्र हैं। प्रत्येक क्षेत्र में सीतानदी के अन्तमें व्यन्तरदेव रहते हैं जो चक्रवर्तियों द्वारा वशमें किये जाते हैं ।
सीता नदी से दक्षिण दिशामें भी आठ क्षेत्र हैं, पूर्व दिशामें वनवेदी है, बनवेदीके बाद क्षारपर्वत, विभङ्गानदी, वक्षारपर्वत, विभङ्गानदी, वक्षारपर्वत, विभङ्गानदी, वक्षारपर्वत और वनवेदी ये क्रमसे नौ स्थान हैं। इनके द्वारा विभक्त हो जानेसे. आठ क्षेत्र हो जाते
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