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५।१९]
पञ्चम अध्याय
४२३ ।
पुद्गल द्रव्यका उपकारशरीरवाङ्मनःप्राणापानाः पुद्गलानाम् ॥ १९ ॥ शरीर, वचन, मन और श्वासोच्छ्वास ये पुद्गल द्रव्यके उपकार हैं।
शरीर विशीर्ण होनेवाले होते हैं । औदारिक, वैक्रियिक, आहारक,तेजस और कार्मण ये पाँच शरीर पुद्गलसे बनते हैं। आत्माके परिणामोंके निमित्तसे पुद्गल परमाणु कर्मरूप परिणत हो जाते हैं और कर्मोंसे औदारिक आदि शरीरोंकी उत्पत्ति होती है इसलिये शरीर पौद्गलिक हैं।
प्रश्न-कार्मण शरीर अनाहारक होनेसे पौद्गलिक नहीं हो सकता। ___उत्तर-यद्यपि कार्मण शरीर अनाहारक है लेकिन उसका विपाक गुड कांटा आदि मूर्तिमान् द्रव्यके सम्बन्ध होने पर होता है हसलिये कार्मण शरीर भी पौद्गलिक ही है।
__वचन के दो भेद हैं-द्रव्यवचन और भाववचन । वीर्यान्तराय, मति और श्रुतज्ञानावरणके क्षयोपशम होनेपर और अङ्गोपाङ्ग नामकर्म के उदय होनेपर भाववचन होते हैं इसलिये पुद्गलके आश्रित होने से पौद्गलिक है। भाव वचनकी सामर्थ्यसे युक्त आत्माके द्वारा प्रेरित होकर जो पुद्गल परमाणु वचनरूपसे परिणत होते हैं वे द्रव्य वचन हैं। द्रव्य वचन श्रोत्रेन्द्रियके विषय होते हैं।
प्रश्न-वचन अमूर्त हैं अतः उनको पौद्गलिक कहना ठीक नहीं है।
उत्तर-वचन अमूर्त नहीं है किन्तु मूर्त हैं और इसीलिये पौद्गलिक भी हैं । शब्दोंका मूर्तिमान द्रव्यकणं के द्वारा ग्रहण होता है, दीवाल आदि मूर्तिमान द्रव्यके द्वारा शब्दका अवरोध देखा जाता है, तीव्र भेरी आदिके शब्दो के द्वारा मन्द मच्छर आदिके शब्दोंका व्याघात होता है, मूर्त वायुके द्वारा भी शब्दका व्याघात होता है। विपरीत वायु चलनेसे शब्द अपने अनुकूल देशमें नहीं पहुंच पाता, इन सब कारणोंसे शब्दमें मूर्तत्व सिद्ध होता है । मूर्त द्रव्यके द्वारा ग्रहण, अवरोध, अभिभव आदि अमूर्त वस्तुमें नहीं हो सकते ।।
मनके भी दो भेद हैं द्रव्यमन और भावमन । ज्ञानावरण और वीर्यान्तरायके क्षयोपशम होने पर और अङ्गोपाङ्ग नामकर्मके उदय होने पर मुण और दोषोंके विचार करने में समर्थ आत्माके उपकारक जो पुद्गल मन रूपसे परिणत होते हैं वे द्रव्यमन हैं। भावमन लन्धि और उपयोगरूप होता है और द्रव्यमनके आश्रित होनेसे पौद्ल क है।
प्रश्न-मन अणुमात्र और रूपादि गुणोंसे रहित एक भिन्न द्रव्य है। उसको पौद्गलिक कहना ठीक नहीं है।
उत्तर-यदि मन अणुमात्र है तो इन्द्रिय और आत्मासे उसका सम्बन्ध है या नहीं ? यदि सम्बन्ध नहीं है ; तो वह आत्माका उपकारक नहीं हो सकता। और आत्माके साथ मनका सम्बन्ध है, तो एक देशमें ही सम्बन्ध हो सकेगा, तब अन्य देशों में वह उपकारक नहीं हो सकेगा। अदृष्टके कारण अलातचक्रकी तरह मनका आत्माके सब प्रदेशों में परिभ्रमण मानना भी ठीक नहीं है ; क्योंकि आत्मा और अदृष्ट नैयायिक मतके अनुसार स्वयं क्रियारहित है अतः वे मनकी क्रियामें भी कारण नहीं हो सकते । क्रियावान् वायु आदिके गुणही अन्यत्र क्रियाहेतु हो सकते हैं।
ज्ञानावरण और वीर्यान्तरायके क्षयोपशम होने पर और अङ्गोपाङ्ग नामकर्मके उदय होने पर शरीरके भीतरसे जो वायु बाहर निकलती है उसको प्राण और जो वायु बाहरसे शरीरके भीतर जाती है उसको अपान कहते हैं ।
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