________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
५:१५-१७] पश्चम अध्याय
४२१ एक साथ रहता है । इस विषयमें आगम प्रमाण भी है । प्रवचनसारमें कहा है कि सूक्ष्म, बादर और नाना प्रकार के अनन्तानन्त पुद्गल स्कन्धोंसे यह लोक ठसाठस भरा है।।
इस विषयमें रुई की गांठ का दृष्टान्त भी उपयुक्त है। फैली हुई रुई अधिक क्षेत्रको घेरती है जब कि गांठ बाँधनेपर अल्पक्षेत्रमें आ जाती है।
असंख्येयभागादिषु जीवानाम् ॥ १५॥ जीवोंका अवगाह लोकाकाशके असंख्यातवें भागसे लेकर समस्त लोकाकाशमें है। लोकाकाशके असंख्यात भागोंमें से एक, दो, तीन आदि भागों में एक जीव रहता है और लोकपूरणसमुद्धातके समय वही जीव समस्त लोकाकाशमें व्याप्त हो जाता है।।
प्रश्न-यदि लोकाकाशके एक भागमें एक जीव रहता है तो एक भागमें द्रव्य प्रमाणसे शरीरयुक्त अनन्तानन्त जीवराशि केसे रह सकती है ?
उत्तर-सूक्ष्म और बादरके भेदसे जीवोंका एक आदि भागों में अवगाह होता है। अनेक बादर जीव एक स्थानमें नहीं रह सकते क्योंकि वे परस्पर में प्रतिघात ( बाधा) करते हैं, लेकिन परस्परमें प्रतिघात न करनेके कारण एक निगोद जीवके शरीर में अनन्तानन्त सूक्ष्म जीव रहते हैं । बादर जीवोंसे भी सूक्ष्म जीवोंका प्रतिघात नहीं होता है। असंख्यातप्रदेशी जीव लोकके असंख्यातवें भागमें कैसे रहता है
प्रदेशसंहारविसर्गाम्यां प्रदीपवत् ॥१६॥ दीपकके प्रकाशकी तरह जीव प्रदेशोंके संकोच और विस्तारकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें आदि भागों में रहता है। दीपकको यदि खुले मैदानमें रक्खा जाय तो उसका प्रकाश दूर तक होगा । उसी दीपकको कोठेमें रखनेसे कम प्रकाश और घड़ेमें रखनेसे और भी कम प्रकाश होगा। इसी प्रकार जीव भी अनादि कार्मण शरीरके कारण छोटा और बड़ा शरीर धारण करता है और जीवके प्रदेश संकोच और विस्तारके द्वारा शरीरप्रमाण हो जाते हैं। लघु शरीर में प्रदेशोंका संकोच और बड़े शरीर में प्रदेशोंका विस्तार हो जाता है लेकिन जीव वही रहता है जैसे हाथी और चींटीके शरीरमें ।
एक प्रदेशमें स्थित होनेके कारण यद्यपि धर्म आदि द्रव्य परस्परमें प्रवेश करते हैं लेकिन अपने अपने स्वभावको नहीं छोड़ते इसलिये उनमें संकर या एकत्व दोष नहीं हो सकता । पश्चास्तिकायमें कहा भी है कि- "ये द्रव्य परस्पर में प्रवेश करते हैं, एक दूसरेमें मिलते हैं, परस्परको अवकाश देते हैं लेकिन अपने अपने स्वभावको नहीं छोड़ते।"
धर्म और अधर्म द्रव्यका उपकार-- __ गतिस्थित्युपग्रहौ धर्माधर्मयोरुपकारः ॥ १७ ॥ एक देशसे देशान्तरमें जाना गति है। ठहरना स्थिति है। जीव और पुद्गलोंको गमन करने में सहायता देना धर्म द्रव्यका उपकार और जीव तथा पुद्गलोंको ठहरनेमें सहायता देना अधर्म द्रव्यका उपकार है। यद्यपि उपकार दो हैं लेकिन उपकार शब्दको सामान्यवाची होनेसे सूत्र में एकवचनका ही प्रयोग किया है।
प्रश्न--सूत्रमें उपग्रह शब्द व्यर्थ है क्योंकि उपकार शब्दसे ही प्रयोजन सिद्ध हो जाता है इसलिये 'गतिस्थिती धर्माधर्मयोरुपकारः' ऐसा सूत्र होना चाहिये ।।
उत्तर---यदि सूत्र में उपग्रह शब्द न हो तो जिस प्रकार धर्म द्रव्यका उपकार गति और अधर्म द्रव्यका उपकार स्थिति है ऐसा क्रमसे होता है उसी प्रकार जीवोंके गमनमें सहायता
For Private And Personal Use Only