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३१२८] तृतीय अध्याय
३९३ प्रकार दश कोडाकोड़ी सागरका अवसर्पिणी काल समाप्त होता है। इसके बाद दश कोड़ाकोड़ो सागरका उत्सर्पिणी काल प्रारंभ होता है।
उत्सर्पिणीके अतिदुषमा नामक प्रथम कालके आदिमें उनचास दिन पर्यन्त लगातार क्षीरमेघ बरसते हैं, पुनः अमृतमेध भी उतने हो दिन पर्यन्त बरसते हैं । आदिमें मनुष्योंकी आयु सोलह वर्ष और शरीरकी ऊँचाई एक हाथ रहती है और अन्तमें आयु बीस वर्ष और शरीरकी ऊँचाई साढ़े तीन हाथ हो जाती है। मेघोंके बरसनेसे पृथिवी कोमल हो जाती है । ओषधि, तरु, गुल्म, तृण आदि रससहित हो जाते हैं । पूर्वोक्त युगल बिलोंसे निकलकर सरस धान्य आदिके उपभोगसे सहर्ष रहते हैं।
दुषमा नामक द्वितीय कालके आदिमें मनुष्योंकी आयु बीस वर्ष और शरीरकी ऊँचाई साढ़े तीन हाथ होती है। द्वितीय कालमें एक हजार वर्ष शेष रहने पर चौदह कुलकर उत्पन्न होते हैं। ये कुलकर अवसर्पिणी कालके पञ्चम कालके राजाओंकी तरह होते हैं। तेरह कुलकर द्वितीय कालमें ही उत्पन्न होते हैं और मरते भी द्वितीय काल में ही है। लेकिन चौदहवाँ कुलकर उत्पन्न तो द्वितीय काल में होता है लेकिन मरता तृतीय कालमें है। चौदहवें कुलकर का पुत्र तीर्थकर होता हैं और तीर्थंकरका पुत्र चक्रवर्ती होता है। इन दोनोंकी उत्पत्ति तीसरे कालमें होती है।
दुषमसुषमा नामक तृतीय कालके आदिमें मनुष्योंकी आयु एक सौ बीस वर्ष और शरीरकी ऊँचाई सात हाथ होती है। और अन्तमें आयु कोटिपूर्व वर्ष और शरीरकी ऊँचाई सवा पाँच सौ धनुष प्रमाण होती है । इस कालमें शलाकापुरुष उत्पन्न होते हैं।
सुषमदुषमा नामक चौथे कालमें जघन्य भोगभूमिकी रचना, सुषमा नामक पञ्चम कालमें मध्यम भोगभूमिकी रचना और सुषमसुषमा नामक छठे कालमें उत्तम भोगभूमिकी रचना होती है।
चौथे, पाँचवें और छठवें कालमें एक भी ईति नहीं होती है । ज्योतिरङ्ग कल्पवृक्षों के प्रकाशसे रातदिनका विभाग भी नहीं होता है। मेघवृष्टि, शीतबाधा, उष्णबाधा, क्रूरमृगबाधा आदि कभी नहीं होती हैं। इस प्रकार दश कोड़ाकोड़ी सागरका उत्सर्पिणीकाल समाप्त हो जाता है । पुनः अवसर्पिणी काल आता है । इस प्रकार अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी कालका चक्र चलता रहता है। उत्सर्पिणीके दश कोडाकोड़ी सागर और अवसर्पिणीके दश कोड़ाकोड़ी सागर इस प्रकार बीस कोड़ाकोड़ो सागरका एक कल्प होता है। एक कल्पमें भोगभूमिका काल अठारह कोड़ाकोड़ी सागर है । भोगभूमिके मनुष्य मधुरभाषी, सर्वकलाकुशल, समान भोग वाले, पसीनेसे रहित और ईर्ष्या, मात्सर्य, कृपणता, ग्लानि, भय, विषाद, काम आदिसे रहित होते हैं। उनको इष्टवियोग और अनिष्टसंयोग नहीं होता। आयुके अन्तमें जंभाई लेनेसे पुरुषकी और छींकसे स्त्रीकी मृत्यु हो जाती है। वहाँ नपुंसक नहीं होते हैं । सब मृग(पशु) विशिष्ट घासको चरने वाले और समान आयुवाले होते हैं ।
____ अन्य भूमियोंका वर्णन
ताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थिताः ॥ २८ ॥ भरत और ऐरावत क्षेत्रको छोड़कर अन्य भुमियाँ सदा अवस्थित रहती हैं। उनमें कालका परिवर्तन नहीं होता । हैमवत, हरि और देवकुरुमें क्रमसे अवसर्पिणी कालके तृतीय, द्वितीय और प्रथम कालकी सत्ता रहती है। इसी प्रकार हैरण्यवत, रम्यक और उत्तर कुरुमें भी कालकी अवस्थिति समझना चाहिये।
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