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तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार
[३।३७ पूर्व और आग्नेयके अन्तरालमें अश्वके समान मुखवाले आग्नेय और दक्षिणके अन्तराल में सिंहके समान मुखवाले,दक्षिण और नैऋत्यके अन्तरालमें भषण-कुत्ते के समान मुखवाले, नत्य और पश्चिमके अन्तरालमें गर्वर ( उल्लू) के समान मुखवाले, पश्चिम और वायव्यके अन्तरालमें शूकरके समान मुखवाले,वायव्य और उत्तर के अन्तरालमें व्याघ्र के समान मुखवाले, उत्तर और ऐशानके अन्तरालमें काकके समान मुखवाले और ऐशान और पूर्व के अन्तराल में कपि ( बन्दर )के समान मुखबाले मनुष्य होते हैं।
हिमवान् पर्वतके पूर्व पार्श्वमें मछली के समान मुखवाले और पश्चिम पार्श्वमें काले मुखवाले, शिखरी पर्वतके पूर्व पार्श्वमें मेधके समान मुखवाले और पश्चिम पार्श्वमें विद्युत्के, दक्षिणदिशाके विजया के पूर्व पार्श्व में गायके समान मुखवाले और पश्चिम पाश्वमें मेषके समान मुखवाले और उत्तरदिशामें विजया के पूर्व पार्श्वमें हाथीके समान मुखवाले और पश्चिम पार्श्वमें दर्पणके समान मुखवाले मनुष्य होते हैं।
एक पैरवाले मनुष्य मिट्टी खाते हैं और गुहाओंमें रहते हैं। अन्य मनुष्य वृक्षोंके नीचे रहते हैं और फल-पुष्प खाते हैं। इनकी आयु एक पल्य और शरीरकी ऊंचाई दो हजार धनुष है।
____ उक्त चौबीस द्वीप लवणसमुद्रके भीतर हैं। इसी प्रकार लवणसमुद्र के बाहर भी चौबीस द्वीप हैं। लवण समुद्रके कालोदसमुद्रसम्बन्धी भी अड़तालीस द्वीप हैं। सब मिलाकर छयानवे म्लेच्छ द्वीप होते हैं । ये सब द्वीप जलसे एक योजन ऊपर हैं। इन द्वीपोंमें उत्पन्न होनेवाले मनुष्य अन्तीपज म्लेच्छ कहलाते हैं। - पुलिन्द, शबर, यवन, खस, बर्बर आदि कर्मभूमिज म्लेच्छ हैं।
कर्म भूमियोंका वर्णनभरतैरावतविदेहा: कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरूत्तरकुरुभ्यः ।। ३७ ॥
पाँच भरत, पाँच ऐरावत और देवकुरु एवं उत्तर कुरुको छोड़कर पाँच विदेह-इस प्रकार पन्द्रह कर्मभूमियाँ हैं।
इसके अतिरिक्त भूमियाँ भोगभूमि हो हैं किन्तु अन्तर्वीपों में कल्पवृक्ष नहीं होते।
भोगभूमिके सब ममुष्य मरकर देव ही होते हैं। किसी आचार्यका ऐसा मत है कि चार अन्तर्वीप हैं वे कर्मभूमिके समीप हैं अतः उनमें उत्पन्न होने वाले मनुष्य चारों गतियों में जा सकते हैं। ____ मानुषोत्तर पर्वतके आगे और स्वयम्भूरमण द्वीपके मध्यमें स्थित स्वयंप्रभ पर्वतके पहिले जितने द्वीप हैं उन सबमें एकेन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय जीव ही होते हैं। ये द्वीप कुभोगभूमि कहलाते हैं। इनमें असंख्यात वर्षको आयुवाले और एक कोस ऊँचे पञ्चेन्द्रिय तिर्यन्त्र ही होते है, मनुष्य नहीं । इनके आदिके चार गुणस्थान ही हो सकते हैं।
__मानुषोत्तर पर्वत सत्रह सौ इक्कीस योजन ऊँचा है, और चार सौ तीस योजन भूमिके अन्दर है, मूलमें एक सौ बाईस योजन,मध्यमें सात सौ तेतीस योजन, ऊपर चार सौ चौबीस योजन विस्तारवाला है। मानुषोत्तरके ऊपर चारों दिशाओं में चार चैत्यालय हैं।
सर्वार्थसिद्धिको देनेवाला उत्कृष्ट शुभकर्म और सातवें नरकमें ले जानेवाला उत्कृष्ट अशुभ कर्म यहीं पर किया जाता है । तथा असि, मसि, कृषि, वाणिज्य आदि कर्म यहीं पर
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