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पञ्चम अध्याय
अजीव तत्त्वका वर्णन
अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः ॥१॥ धर्म,अधर्म,आकाश और पुद्गल ये चार द्रव्य अजीवकाय हैं। शरीरके समान प्रलय या पिण्ड रूप होनेके कारण इन द्रव्योंको अजीवकाय कहा है। यद्यपि काल द्रव्य भी अजीव है लेकिन प्रचयरूप न होनेके कारण कालको इस सूत्र में नहीं कहा है। काल द्रव्यके प्रदेश मोती के समान एक दूसरेसे पृथक् हैं । निश्चयनयसे एक पुद्गल परमाणु बहुप्रदेशी नहीं है किन्तु उपचारसे एक पुद्गल परमाणु भी बहुप्रदेशी कहा जाता है क्योंकि उसमें अन्य परमाणुओं के साथ मिलकर पिण्डरूप परिणत होनेकी शक्ति है।
प्रश्न-'असंख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मकजीवानाम' ऐसा आगे सूत्र है। उसीसे यह निश्चय हो जाता है कि धर्म आदि द्रव्य बहुप्रदेशी हैं । फिर इन द्रव्योंको बहुप्रदेशी बतलाने के लिये इस सूत्रमें काय शब्दका ग्रहण क्यों किया ?
___उत्तर-इस सूत्र में काय शब्द यह सूचित करता है कि धर्म आदि द्रव्य बहुप्रदेशी हैं और आगेके सूत्रोंसे उन प्रदेशोंका निर्धारण होता है कि किस द्रव्यके कितने प्रदेश हैं। काल द्रव्यके प्रदेश प्रचयरूप नहीं होते हैं इस बातको बतलानेके लिये भी इस सूत्रमें काय शब्दका ग्रहण किया है। 'अजीवकाय' इस शब्दमें अजीव विशेषण है और काय विशेष्य है । इसलिये यहाँ विशेषणविशेष्य समास हुआ है । किन्हीं दो पदार्थों में व्यभिचार (असम्बन्ध) होनेपर किसी एक स्थानमें उनके सम्बन्धको बतलाने के लिये विशेषणविशेष्य समास होता है। काल द्रव्य अजीव है लेकिन काय नहीं है, जीव द्रव्य काय है लेकिन अजीव नहीं हैं । अतः अजीव और कायमें व्यभिचार होनेके कारण विशेषणविशेष्य समास हो गया है।
द्रव्याणि ।। २ ॥ उक्त धर्म आदि चार द्रव्य हैं। जिसमें गुण और पर्याय पाये जॉय उनको द्रव्य कहते हैं।
नैयायिक कहते हैं कि जिसमें द्रव्यत्व नामक सामान्य रहे वह द्रव्य है । ऐसा कहना ठीक नहीं है। जब द्रव्यत्व और द्रव्य दोनोंकी पृथक पृथक् सिद्धि हो तब द्रव्यत्वका द्रव्यके साथ सम्बन्ध हो सकता है। लेकिन दोनोंकी पृथक पृथक् सिद्धि नहीं है । और यदि दोनों की पृथक् सिद्धि है तो विना द्रव्यत्यके भी द्रव्य सिद्ध हो गया तब द्रव्यत्वके सम्बन्ध माननेकी क्या आवश्यकता है ? इसी प्रकार गुणों के समुदायको द्रव्य कहना भी ठीक नहीं है ; क्योंकि गुण और समुदायमें अभेद मानने पर एक ही पदार्थ रहेगा और भेद मानने पर गुणोंकी कल्पना व्यर्थ है क्योंकि विना गुणों के भी समुदाय सिद्ध है।
गुण और द्रव्यमें कथञ्चित् भेदाभेद माननेसे कोई दोष नहीं आता। गुण और द्रव्य पृथक पृथक् उपलब्ध नहीं होते इसलिये उनमें अभेद है और उनके नाम, लक्षण, प्रयोजन आदि भिन्न भिन्न हैं इसलिये उनमें भेद भी है।
पूर्व सूत्रमें धर्म आदि बहुत पदार्थ हैं इसलिये इस सूत्रमें धर्म आदिका द्रव्य के साथ
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