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तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार सार .
[४५-८ होते हैं उनको आरक्षक कहते हैं । अर्थ (धन) सम्बन्धी कार्यमें नियुक्त अर्थचर कहलाते हैं। पत्तन, नगर आदिकी रक्षा के लिये नियुक्त ( कोट्टपाल ) कहलाते हैं।
अनीक-जो हस्ति, अश्व, रथ, पदाति, वृषभ,गन्धर्व और नर्तकी इन सात प्रकारकी सेनामें रहते हैं वे अनीक हैं।
प्रकीर्णक-नगरवासियोंके समान जो इधर उधर फैले हुये हों उनको प्रकीर्णक कहते हैं। आभियोग्य-जो नौकरका काम करते हैं वे आभियोग्य हैं।
किल्विषिक-किल्विष पापको कहते हैं। जो सवारीमें नियुक्त हों तथा नाई आदिकी तरह नीचकर्म करनेवाले होते हैं उनको किल्विषक कहते हैं।
त्रायस्त्रिंशलोकपालवा व्यन्तरज्योतिष्काः ॥ ५ ॥ व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें त्रायस्त्रिंश और कपाल नहीं होते हैं ।
इन्द्रोंकी --
पूर्वयोर्दीन्द्राः ॥ ६॥ भवनवासी और व्यन्तर देवों में प्रत्येक भेदसम्बन्धी दो दो इन्द्र होते हैं।
भवनवासी देवोंमें असुरकुमारोंके चमर और वैरोचन, नागकुमारोंके धरण और भूतानन्द, विद्युत्कुमारोंके हरिसिंह और हरिकान्त, सुवर्णकुमारोंके वेणुदेव और वेणुताली, अग्निकुमारों के अग्निशिख और अग्निमाणव,वातकुमारोंके वेलम्ब और प्रभञ्जन,स्तनितकुमारों. के सुघोष और महाघोष, उदधिकुमारोंके जलकान्त और जलप्रभ, द्वीपकुमारोंके पूर्ण और अवशिष्ट, दिक्कुमारोंके अमितगति और अमितवाहन, नामके इन्द्र होते हैं।
ब्यन्तर देवों में किन्नरोंके किन्नर और किम्पुरुष, किम्पुरुषोंके सत्पुरुष और महापुरुष, महोरगोंके अतिकाय और महाकाय, गन्धर्वो के गीतरति और गीतयश, यक्षोंके पूर्णभद्र
और मणिभद्र, राक्षसों के भीम और महाभीम, भूतोके प्रतिरूप और अप्रतिरूप और पिशाचोंके काल और महाकाल नामके इन्द्र होते हैं।
देवोंके भोगोंका वर्णन--
कायप्रवीचारा आ ऐशानात् ॥ ७ ॥ ऐशान स्वर्गपर्यन्तके देव अर्थात् भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और प्रथम तथा द्वितीय स्वर्गके देव मनुष्य और तिर्यकचोंके समान शरीरसे काम सेवन करते हैं।
मर्यादा और अभिविधि, क्रियायोग और ईषत् अर्थ में "आ" उपसर्ग आता है। तथा वाक्य और स्मरण अर्थमें 'आ' उपसर्ग आता है 'आ' उपसर्ग की स्वरपरे रहते सन्धि नहीं होती । इस सूत्रमें आ और ए ( आ + ऐ ) इन दोनों की सन्धि हो सकती थी लेकिन सन्देहको दूर करनेके लिये आचार्य ने सन्धि नहीं की है। यहां आ अभिविधिके अर्थमें प्रयुक्त हुआ है । अभिविधिमें उस वस्तुका भी ग्रहण होता है जिसका निर्देश के बाद किया जाता है । जैसे इस सूत्रमें ऐशान स्वर्गका भी ग्रहण है ।
शेषाः स्पर्शरू पशब्दमनःप्रवीचाराः ॥ ८॥ शेष देव ( तृतीय स्वर्गसे सोलहवें स्वर्गतक) देवियों के स्पर्शसे, रूप देखनेसे, शब्द सुननेसे और मनमें स्मरण मात्रसे काम सुखका अनुभव करते हैं ।
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