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३।९-१०]
. तृतीय अध्याय
जम्बू द्वीपको रचना और विस्तारतन्मध्ये मेरुनाभिवृत्तो योजनशतसहस्रविष्कम्भो जम्बूद्वीपः ॥ ९ ॥
उन असंख्यात द्वीप समुद्रोंके बीचमें एक लाख योजन विस्तारवाला जम्बूद्वीप है। जम्बूदीपके मध्यमें मेरु है अतः मेरुको जम्बूदीपकी नाभि कहा गया है। जम्बू द्वीपका आकार गोल है।
मेरु पर्वत एक लाख योजन ऊँचा है । वह एक हजार योजन भूमिसे नीचे और ९९ हजार योजन भूमिसे ऊपर है। भूमिपर भद्रशाल वन है। भद्रशाल वनसे पांच सौ योजन ऊपर नन्दनवन है। नन्दनवनसे त्रेसठ हजार योजन ऊपर सौमनसवन है । सौमनसवन से साढ़े पैंतिस हजार योजन ऊपर पाण्डुकवन । मेरु पर्वतकी शिखर चालीस योजन ऊँची है। इस शिखिरकी ऊँचाईका परिमाण पाण्डुकवनके परिमाणके अन्तर्गत ही है।
जम्बूद्वीपका एक लाख योजन विस्तार कोट के विस्तार सहित है । जम्बू द्वीपका कोट आठ योजन ऊँचा है. मलमें बारह योजन. मध्यमें आठ योजन और ऊपर भी पाठ योजन विस्तार है । उस कोटके दोनों पावों में दो कोश ऊँची रत्नमयी दो वेदी हैं । प्रत्येक वेदीका विस्तार एक योजन एक कोश और एक हजार सात सौ पचास धनुष है । दोनों वेदियोंके बीचमें महोक्ष देवों के अनादिधन प्रासाद हैं जो वृक्ष वापी, सरोवर, जिनमन्दिर आदिसे विभूषित हैं । उस कोटके पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर चारों दिशाओंमें क्रमसे विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित नामके चार द्वार हैं। द्वारोंकी ऊँचाई आठ योजन और विस्तार चार योजन है । द्वारोंके आगे अष्ट प्रतिहार्यसंयुक्त जिनप्रतिमा हैं।
जम्बू द्वीपकी परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन तीन कोश एक सौ अट्ठाईस धनुष और साढ़े तेरह अंगुलसे कुछ अधिक है।
क्षेत्रोंका वर्णनभरतहैमवतहरिविदेहरम्यकहैरण्यवतैरावतवर्षाः क्षेत्राणि ॥ १० ॥
जम्बू द्वीपमें भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत ये अनादिनिधन नामवाले सात क्षेत्र हैं।
हिमवान् पर्वत और पूर्व-दक्षिण-पश्चिम समुद्र के बीचमें धनुषके आकारका भरत क्षेत्र है । इसके गङ्गा-सिन्धु नदी और विजयार्द्ध पर्वतके द्वारा छह खण्ड हो गये हैं।
भरतक्षेत्र के बीच में पच्चीस योजन ऊँचा रजतमय विजयाई पर्वत है जिसका विस्तार पचास हजार योजन है। विजयाद्ध पर्वत पर और पाँच म्लेच्छखण्डोंमें चौथे कालके आदि
और अन्तके समान काल रहता है। इसलिये वहाँपर शरीरकी ऊँचाई उत्कृष्ट पाँच सौ धनुष और जघन्य सात हाथ है। उत्कृष्ट आयु पूर्वकोटि और जघन्य एक सौ बीस वर्ष है।
___ विजया पर्वतसे दक्षिण दिशाके बीच में अयोध्या नगरी है। विजयाद्ध पर्वतसे उत्तरदिशामें और क्षुद्रहिमवान् पर्वतसे दक्षिण दिशामें गङ्गा-सिन्धु नदियों तथा म्लेच्छखण्डोंक मध्यमें एक योजन ऊँचा और पचास योजन लम्बा, जिनालय सहित सुवर्णरत्नमय वृपभनामका पर्वत है । इस पर्वत पर चक्रवर्ती अपनी प्रशस्ति लिखते हैं।
हिमवान् महाहिमवान् पर्वत और पूर्व-पश्चिम समुद्रके मध्यमें हैमवत क्षेत्र है। इसमें जघन्य भोगभूमि की रचना है। हैमवत क्षेत्रके मध्यमें गोलाकार, एक हजार योजन ऊँचा, एक योजन लम्बा शब्दवान् पर्वत है।
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