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प्रस्तुतवृत्ति मध्यलोक तक ५ राजू. और लोकान्तवर्ती बादरजलकाय या वनस्पतिकायमें उत्पन्न होनेके कारण ७ राज, इस प्रकार १२ राजू हो जाते हैं। कुछ प्रदेश सासादनके स्पर्शयोग्य नहीं होते अत. देशोन समझ लेना चाहिए। - इस प्रकार समस्त सूत्रमें सर्वार्थसिद्धिके अभिप्रायको खोलनेका पूर्ण प्रयत्न किया गया है । न केवल इसी सूत्रको ही, किन्तु समग्र ग्रन्थ को ही लगानेका विद्वत्तापूर्ण प्रयास किया गया है।
परन्तु शास्त्रसमुद्र इतना अगाध और विविध भंग तरंगोंसे युक्त है कि उसमें कितना भी कुशल अवगाहक क्यों न हो चक्करमें आ ही जाता है। इसीलिए बड़े बड़े आचार्योने अपने छद्मस्थज्ञान और चंचल क्षायोपशमिक उपयोग पर विश्वास न करके स्वयं लिख दिया है कि-"को न विमुह्यति शास्त्रसमुद्र ।" श्रुतसागरसूरि भी इसके अपवाद नहीं हैं। यथा
(१) सर्वार्थ सिद्धिम "द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः" (५।४१) सूत्रकी व्याख्यामें निर्गुण' इस विशेषण की सार्थकता बताते हुए लिखा है कि-"निर्गुण इति विशेषणं द्वय णुकादिनिवृत्त्यर्थम्, तान्यपि हि कारणभूतपरमाणुद्रव्याश्रयाणि गुणवन्ति तु तस्मात् 'निर्गुणाः' इति विशेषणात्तानि निवर्तितानि भवन्ति ।" अर्थात् घणुकादि स्कन्ध नैयायिकों की दृष्टिसे परमाणुरूप कारणद्रव्यमें आश्रित होनेसे द्रव्याश्रित हैं और रूपादि गुणवाले होनेसे गुणवाले भी हैं अतः इनमें भी उक्त गुणका लक्षण अतिव्याप्त हो जायगा। इसलिए इनकी निवृत्तिके लिए 'निर्गुणाः' यह विशेषण दिया गया है । इसकी व्याख्या करते हुए श्रुतसागरसूरि लिखते हैं कि
"निर्गुणाः इति विशेषणं द्वषणुकश्यणुकादिस्कन्धनिषेधार्थम्, तेन स्कन्धाश्रया गुणा गुणा नोच्यन्ते ।. कस्मात् ? कारणभूतपरमाणुद्रव्याश्रयत्वात्, तस्मात् कारणात् निर्गुणा इति विशेषणात् स्कन्धगुणा गुणा न भवन्ति पर्यायाश्रयत्वात् । अर्थात्-'निर्गुणाः' यह विशेषण द्वषणुक त्र्यणुकादि स्कन्धके निषेधके लिए है। इससे स्कन्धमें रहनेवाले गुण गुण नहीं कहे जा सकते क्योंकि वे कारणभूत परमाणुद्रव्यमें रहते हैं। इसलिए स्कन्धके गुण गुण नहीं हो सकते क्योंकि वे पर्यायमें रहते हैं। यह हेतुवाद बड़ा विचित्र है और जैन सिद्धान्त के प्रतिकूल भी। जैनसिद्धान्तमें रूपादि चाहे घटादिस्कन्धोंमें रहनेवाले हों या परमाणुमें, सभी गुण कहे जाते हैं। ये स्कन्धके गुणोंको गुण ही नहीं कहना चाहते क्योंकि वे पर्यायाश्रित हैं। यदि वे यह कहते कि कारणपरमाणुओंको छोड़कर स्कन्धकी स्वतंत्र सत्ता नहीं है और इसलिए स्कन्धानित गुण स्वतंत्र नहीं है तो कदाचित् संगत भी था। पर इस कथनका प्रकृत 'निर्गुण' पदकी सार्थकतासे कोई मेल नहीं बैठता । इस असंगतिके कारण आगेके शंकासमाधानमें भी असंगति हो गई है। यथा-सर्वार्थसिद्धिमें है किघटकी संस्थान-आकार आदि पर्याएँ भी द्रव्याश्रित हैं और स्वयं गुणरहित हैं अतः उन्हें भी गुण कहना चाहिए । इसका समाधान यह कर दिया गया है कि जो हमेशा द्रव्याश्रित हों, रूपादि गुण सदा द्रव्याश्रित रहते हैं। जब कि घटके संस्थानादि सदा द्रव्याश्रित नहीं हैं। इस शंका-समाधानका सर्वार्थसिद्धिका पाठ यह है
_ "ननु पर्याया अपि घटसंस्थानादयो द्रव्याश्रया निर्गुणाश्च, तेषामपि गुणत्वं प्राप्नोति । द्रव्याश्रया इति वचनान्नित्यं द्रव्यमाश्रित्य वर्तन्ते, गुणा इति विशेषणात् पर्यायाश्च निवतिता भवन्ति, ते हि कादाचित्का इति ।"
इस शंकासमाधानको श्रुतसागर सुरि इस रूपमें उपस्थित करते हैं
"ननु घटादिपर्यायाश्रिताः संस्थानादयो ये गुणा वर्तन्ते, तेषामपि संस्थानादीनां गुणत्वमास्कन्दति द्रव्याश्रयत्वात्, यतो घटपटादयोऽपि द्रव्याणीत्युच्यन्ते। साध्वभाणि भवता । ये नित्यं द्रव्यमाश्रित्य वर्तन्ते त एव गुणा भवन्ति न तु पर्यायाश्रया गुणा भवन्ति, पर्यायाश्रिता गुणाः कदाचित्काः कदाचिद्भवा वर्तन्ते इति ।"
इस अवतरणमें श्रुतसागरसूरि संस्थानादिको घटादिका गुण कह रहे हैं, और उनका कादाचित्क होनेका उल्लेख है फिर भी उसका अन्यथा अर्थ किया गया है।
(२) सर्वार्थसिद्धि (८१२)में जीव शब्दकी सार्थकता बताते हुए लिखाह कि "अमूतिरहस्त आत्मा कथं कर्मादत्ते ? इति चोदितः सन् जीव इत्याह । जीवनाज्जीवः प्राणधारणादायुःसम्बन्धात् नायुविरहा
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