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तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार
[ २।१५-१७
चीता आदि । गाय, भैंस, मनुष्य आदि जरायिक कहलाते हैं, क्योंकि गर्भ में इनके ऊपर मांस आदिका जाल लिपटा रहता है। शराब आदि में उत्पन्न होनेवाले कीड़े रसायिक हैं अथवा रस नामकी धातुमें उत्पन्न होनेवाले रसायिक हैं । पसीनेसे उत्पन्न होनेवाले जीव संस्वेदिम कहे जाते हैं । चक्रवर्ती आदिकी काँखमें ऐसे सूक्ष्म जीव उत्पन्न होते हैं। संमूर्च्छन-सर्दी, गर्मी, वर्षा आदि के निमित्तसे उत्पन्न होनेवाले सर्प, चूहे आदि संमूच्छिम हैं। कहा भी है-बीर्य, खकार, कान, दाँत आदिका मैल तथा अन्य अपवित्र स्थानों में तत्काल संमूर्च्छन जीव उत्पन्न होते रहते हैं । पृथिवी, काठ, पत्थर आदिको भेदकर उत्पन्न होनेवाले जीव उद्धेदिम कहलाते हैं । जैसे रत्न या पत्थर आदिको चीरनेसे निकलनेवाले मेंढक । देव और नारकियोंके उपपाद स्थानों में उत्पन्न होने वाले देव और नारकी जीव उपपादिम कहलाते है । इनकी अकालमृत्यु नहीं होती है ।
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द्वन्द्रके स्पर्शन र रसनेन्द्रिय, काय और वाग्वल तथा श्रायु और श्वासोच्छ्वास इस प्रकार छह प्राण होते हैं। त्रीन्द्रियके घ्राणेन्द्रिय सहित सात प्राण होते हैं । चतुरिन्द्रियके इन्द्रियसहित आठ प्राण होते हैं। संज्ञी पञ्चेन्द्रियके श्रोत्रेन्द्रिय सहित नव प्राण होते हैं। और संज्ञी पञ्चेन्द्रियके मन सहित दस प्राण होते हैं ।
इन्द्रियों की संख्या -
पञ्चेन्द्रियाणि ॥ १५ ॥
स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु और श्रोत्रके भेदसे इन्द्रियाँ पांच होती हैं । कर्मसहित जीव पदार्थोंको जाननेमें असमर्थ होता है अतः इन्द्रियाँ पदार्थको जानने में सहायक होती हैं । यह उपयोगका प्रकरण है अतः उपयोगके साधनभूत पांच ज्ञानेन्द्रियोंका ही यहां ग्रहण किया गया है । वाक्, पाणि, पार्द आदिके भेदसे कर्मेन्द्रियके अनेक भेद हैं । अतः इस सूत्र में पांच संख्या से सांख्यके द्वारा मानी गई पांच कर्मेन्द्रियोंका ग्रहण नहीं करना चाहिए क्योंकि शरीर के सभी अवयव क्रियाके साधन होनेसे कर्मेन्द्रिय हो सकते हैं इसलिए इनकी कोई संख्या निश्चित नहीं की जा सकती ।
इन्द्रियोंके भेद
द्विविधानि ॥ १६ ॥
द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रियके भेदसे प्रत्येक इन्द्रियके दो दो भेद होते हैं ।
द्रव्येन्द्रियका स्वरूप --- निर्वृच्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम् ॥ १७ ॥
निवृत्ति और उपकरणको द्रव्येन्द्रिय कहते हैं। इनमें से प्रत्येकके अभ्यन्तर और बाह्य के भेद से दो दो भेद हैं ।
चक्षु आदि इन्द्रियकी पुतली आदि के भीतर तदाकार परिणत पुद्गल स्कन्धको बाह्य निवृत्ति कहते हैं । और उत्सेधांगुलके असंख्यात भागप्रमाण आत्माके प्रदेशोंको जो चक्षु आदि इंद्रियोंके आकार हैं तथा तत्तत् ज्ञानावरणके क्षयोपशमसे विशिष्ट है, आभ्यन्तर निवृत्ति कहते हैं ।
चक्षु आदि इन्द्रियोंमें शुक्ल, कृष्ण आदि रूपसे परिणत पुद्गलप्रचयको आभ्यन्तर उपकरण कहते हैं । और अक्षिपदम आदि बाह्य उपकरण हैं ।
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