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तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार नारकियों का वर्णन-
नित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रियाः ॥ ३ ॥
[ ३/३-५
नारका
नारकी जीव सदा ही अशुभतर लेश्या, परिणाम, देह, वेदना और विक्रियावाले होते हैं । उनके कृष्ण नील और कापोत ये तीन अशुभ लेश्यायें होती हैं। प्रथम और द्वितीय नरकमें कापोत लेश्या होती है। तृतीय नरकके उपस्भिाग में कापोत और अधोभागमें नील लेश्या है । चतुर्थ नरक में नील लेश्या है । पञ्चम नरक में ऊपर नील और नीचे कृष्ण लेश्या है। छठवें और सातवें नरकमें कृष्ण और परम कृष्ण लेश्या है। उक्त वर्णन द्रव्यलेश्याओं का है जो आयुपर्यन्त रहती हैं । भावलेश्याएँ अन्तर्मुहूर्त में बदलती रहती हैं. अतः उनका वर्णन नहीं किया गया।
स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द को परिणाम कहते हैं। शरीर को देह कहते हैं । अशुभ नामकर्मके उदयसे नारकियोंके परिणाम और शरीर अशुभतर होते हैं ।
प्रथम नरक में नारकियोंके शरीर की ऊँचाई सात धनुष तीन हाथ और छह अङ्गुल है । आगे नरकों में क्रमसे दुगुनी २ ऊँचाई होती गई है, जो सातवें नरकमें ५०० धनुष हो जाती है। शीत और उष्णतासे होनेवाले दुःखका नाम वेदना है । नारकियोंको शीत और उष्णताजन्य तीव्र दुःख होता है। प्रथम नरकसे चतुर्थ नरक तक उष्ण वेदना होती है । पञ्चम नरकके ऊपर के दो लाख बिलोंमें उष्ण वेदना है और नीचेके एक लाख बिलों में शीत वेदना है । मतान्तर से पांचवें नरक के ऊपर के दो लाख पच्चीस बिलों में उष्ण वेदना तथा २५ कम एक लाख बिलों में शोत वेदना है। छठे और सातवें नरकमें उष्ण वेदना है। शरीरकी विकृतिको विक्रिया कहते हैं । अशुभ कर्मके उदयसे उनकी विक्रिया भी अशुभ ही होती है। शुभ करना चाहते हैं पर होतो अशुभ है ।
परस्परोदीरितदुःखाः ॥ ४ ॥
नारकी जीव परस्पर में एक दूसरेको दुःख उत्पन्न करते हैं। वहाँ सम्यग्दृष्टि जीव अवधिज्ञानसे और मिध्यादृष्टि विभङ्गावधिज्ञानसे दूर से ही दुःखका कारण समझ लेते हैं और दुःखी होते हैं । पासमें आनेपर एक दूसरेको देखते ही क्रोध बढ़ जाता है पुनः पूर्व rah स्मरण और तीव्र वैरके कारण वे कुत्तोंकी तरह एक दूसरेको भोंकते हैं तथा अपने द्वारा बनाये हुये नाना प्रकार के शस्त्रों द्वारा एक दूसरेको मारनेमें प्रवृत्त हो जाते हैं। इस प्रकार नारकी जीव रातदिन कुत्तोंकी तरह लड़कर काटकर मारकर स्वयं ही दुःख पैदा करते रहते हैं। एक दूसरे को काटते हैं, छेदते हैं, सीसा गला कर पिलाते हैं, वैतरिणी में ढकेलते हैं, कड़ाही में झोंक देते हैं आदि ।
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संक्लिष्टासुरीदीरितदुःखाश्च प्राक् चतुर्थ्याः ॥ ५ ॥
चौथे नरकसे पहिले अर्थात् तृतीय नरक पर्यन्त अत्यन्त संक्लिष्ट परिणामोंके धारक अम्बाम्बरीष आदि कुछ असुरकुमारों के द्वारा भी नारकियोंको दुःख पहुँचाया जाता है। असुरकुमार देव तृतीय नरक तक जाकर पूर्वभवका स्मरण कराके नारकियोंको परस्पर में लड़ाते हैं और लड़ाईको देखकर स्वयं प्रसन्न होते हैं । च शब्दसे ये असुरकुमार देव पूर्व सूत्र में कथित दुःख भी पहुँचाते हैं ऐसा समझना चाहिये ।