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३७८ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार
[ २२४९-५३ अनिःसरणात्मक तेजस शरीर औदारिक, वक्रियिक और आहारक इन तीनों शरीरों. के भीतर रहकर इनकी दीप्तिमें कारण होता है ।
आहारक शरीरका लक्षणशुभं विशुद्धमव्याधाति चाहारकं अमत्तसंयतस्यैव ।। ४९ ॥ आहारक शरीर शुभ, विशुद्ध और व्याघात रहित है । इसका कारण शुभ होनेसे शुभ और कार्य विशुद्ध होनेसे विशुद्ध है। आहारक शरीरसे किसीका व्याघात नहीं होता और न अन्य किसीके द्वारा आहारक शरीरका व्याघात होता है अतः अव्याघाती है।
यह शरीर प्रमत्तसंयतके ही होता है। एव शब्द अवधारणार्थक है। अर्थात् आहारक शरीर प्रमत्तसंयत के ही होता है। ऐसा नहीं कि प्रमत्तसंयतके आहारक ही होता है। क्योंकि ऐसा नियम मानने पर औदारिक आदि शरीरोंका निषेध हो जायगा।
__ च शब्द उक्त अर्थ का समुच्चय करता है । अर्थात् संयमके परिपालनके लिये, सूक्ष्म पदार्थक ज्ञानके लिये अथवा लब्धिविशेषके सद्भाव का ज्ञान करने के लिये छठवें गुणस्थानवर्ती मुनिके मस्तकके तालुभागसे एक हाथ का पुतला निकलता है । भरत या एरावत क्षेत्रम स्थित मुनिको केवलीके अभावमें सूक्ष्म पदार्थमें संशय होने पर वह पुतला विदह क्षेत्रमें जाकर और तीर्थकरके शरीरको स्पर्श कर लौट आता है। उसके आने पर मुनिका सन्दह दूर हो जाता है। यदि मुनि स्वयं विज्ञह क्षेत्रमें जाते तो असंयम का दोष लगता ।
वेदों के स्वामी
नारकसंमूछिनो नपुंसकानि ॥५०॥ नारकी और संमूर्च्छन जीवोंके नपुंसकलिङ्ग होता है।
न देवाः ॥५१॥ दवोंके नपुंसकलिङ्ग नहीं होता केवल स्त्रीलिङ्ग और पुरुषलिङ्ग ही होता है ।
शेषास्त्रिवेदाः ।।५२॥ शेष जीवोंके तीनों ही लिङ्ग होते हैं।
__ अकाल मरण किनके नहीं होताऔपपादिकचरमोत्तमदेहाऽसंख्येयवर्षायुषोऽनपवायुषः ॥५३॥ उपपादजन्मवाले देव और नारकियों का,चरमोत्तम शरीरवाले तद्भव मोक्षगामियों का तीर्थंकर परमदेव तथा असंख्यात वर्ष की. आयुवाले मनुष्य और तिर्यञ्चों का अकाल मरण नहीं होता। इससे सिद्ध होता है कि अन्य जीवों का अकाल मरण होता है। यदि अन्य जीवोंका अकाल मरण न होता हो तो दया, धर्मोपदेश और चिकित्सा आदि बातें निरर्थक हो जायेंगी।
विशेप-चरमोत्तम-चरम का अर्थ है अन्तिम और उत्तम का अर्थ है उत्कृष्ट । चरम शरीरी गुरुदत्त पाण्डव आदि का मोक्ष उपसर्गके समय हुआ है तथा उत्तम देहधारी सुभौम ब्रह्मदत्त आदिकी और कृष्ण की जरत्कुमारके बाणसे अपमृत्यु हुई है अतः चरम और उत्तम दोनों विशेषणोंको एक साथ लगाना चाहिये । जिससे चरम शरीरियों में उत्तम पुरुष तीथंकर ही सिद्ध होते है।
द्वितीय अध्याय समाप्त
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