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३७४ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार
[ २।३१-३२ ____एक मोड़ा सहित पाणिमुक्ता गतिमें जीव प्रथम समयमें अनाहारक रहता है और द्वितीय समयमें आहारक हो जाता है।
दो मोड़ा युक्त लाङ्गलिका गतिमें जीव दो समय तक अनाहारक रहता है और तृतीय समय में आहारक हो जाता है। तीन मोड़ा युक्त गोमूत्रिका गतिमें जीव तीन समय तक अनाहारक रहता है और चौथे समयमें नियमसे आहारक हो जाता है। ऋद्धिप्राप्त यतिका आहारक शरीर आहार युक्त होता है ।
जन्म के भेद
सम्मुर्छनगर्भोपपादा जन्म ॥ ३१ ॥ संसारी जीवोंके जन्म के तीन भेद हैं-संमृर्छन, गर्भ और उपपाट ।
माता-पिताके रज और वीर्य के विना पुद्गल परमाणुओंके मिलने मात्रसे ही शरीरकी रचनाको संमूर्छन जन्म कहते हैं।
____माताके गर्भ में शुक्र और शोणितके मिलनेसे जो जन्म होता है उसको गर्भ जन्म कहते हैं अथवा जहाँ माताके द्वारा युक्त आहारका ग्रहण हो वह गर्भ कहलाता है।
जहाँ पहुँचते ही सम्पूर्ण अङ्गों की रचना हो जाय वह उपपाद है। देव और नारकियोंके उत्पत्तिस्थानको उपपाद कहते है।
योनियों के भेदसचित्तशीतसंवृताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनयः ॥३२॥ सचित्त, शीत, संवृत, अचित्त, उष्ण, विवृत और सचित्ताचित्त, शीतोष्ण, संवृतविवृत ये नौ संमूच्र्छन आदि जन्मों की योनियाँ हैं।
च शब्द समुच्चयार्थक है । अर्थात् उक्त योनियाँ परस्पर में भी मिश्र होती हैं और मिश्रयोनियां भी दूसरी योनियों के साथ मिश्र होती हैं।
योनि और जन्म में आधार और आधेय की अपेक्षासे भेद है। योनि आधार हैं और जन्म आधेय हैं।
साधारण वनस्पतिकायिकों के सचित्त योनि होती है, क्योंकि ये जीव परस्पराश्रय रहते हैं। नारकियोंके अचित्त योनि होती है, क्योंकि इनका उपपाद स्थान अचित्त होता है । गर्भजों के सचित्ताचित्त योनि होती है, क्योंकि शुक्र और शोणित अचित्त होते हैं और आत्मा अथवा माता का उदर सचित्त होता है । वनस्पति कायिक के अतिरिक्त पृथिव्यादि कायिक संमूर्च्छनोंके अचित्त और मिश्र योनि होती है । देव और नारकियोंके शीतोष्णयोनि होती है क्योंकि उनके कोई उपपादस्थान शीत होते हैं और कोई उष्ण। तेजाकायिकोंके उष्णयोनि होती है अन्य पृथिव्यादि कायिकों के शीत, उष्ण और शीतोष्ण योनियाँ होती हैं। देव, नारकी और एकेन्द्रियों के संवृत योनि होती है । विकलेन्द्रियों के विवृत योनि होती है । गर्भजोंके संवृत-विवृत योनि होती है।
योनियों के उत्तरभेद चौरासी लाख होते हैं-नित्य मिगोद, इतरनिगोद, पृथिवी, अप् तेज और वायुकायिकों में प्रत्येकके सात सात लाख ६४७=४२, वनस्पति कायिकों के दश लाख, विकलेन्द्रियोंमें प्रत्येकके दो लाख २४३-६, देव, नारकी और तिर्यञ्चों में प्रत्येकके चार चार लाख ३४४=१२ और मनुष्यों के चौदह लाख योनियाँ होती हैं । इस प्रकार ४२+१०+६+१२+१४-८४ लाख योनियाँ होती हैं।
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