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२२३३-३६]]
द्वितीय अध्याय
गर्भ जन्मके स्वामी
जरायुजाण्डजपोतानां गर्भः ॥ ३३ ॥ जरायुज, अण्डज ओर पोत इन जीवोंके गर्भ जन्म होता है।
जालके समान मांस ओर रुधिरके वस्त्राकार आवरण को जरायु कहते हैं। इस जरायुसे आच्छादित हो जो जीव पैदा होते हैं उनको जरायुज कहते हैं । जो जीव अण्डेसे पैदा होते हैं उनको अण्डज कहते हैं । जो जीव पैदा होते ही परिपूर्ण शरीर युक्त हो चलने फिरने लग जावें और जिनपर गर्भ में कोई आवरण न रहता हो उनको पोत कहते हैं।
उपपाद जन्म के स्वामी
देवनारकाणामुपपादः ॥३४॥ देव और नारकियोंके उपपाद जन्म होता है । देव उपपाद शय्यासे उत्पन्न होते हैं। नारकी उपपाद छत्तोंसे नीचे की ओर मुंहकरके गिरते हैं।
समूर्छन जन्म के स्वामी
शेषाणां सम्मृर्छनम् ॥३५॥ गर्भ और उपपाद जन्मवाले प्राणियोंसे अतिरिक्त जीवोंके सम्मुर्छन जन्म होता है ।
उक्त तीनों सूत्र उभयतः नियमार्थक हैं । अर्थात् जरायुज, अण्डज और पोतोंके गर्भ जन्म ही होता है अथवा गर्भजन्म जरायुज, अण्डज और पोतोंकेही होता है। इसी प्रकार उपपाद और समूछेनमें भी दुतरफा नियम घटा लेना चाहिये ।
शरीरोंका वर्णन औदारिकवैक्रियिकाहारकतैजसकार्मणानि शरीराणि ॥ ३६ ॥ औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तेजस और कार्मण ये पाँच शरीर होते हैं।
औदारिक नामकर्मके उदयसे होनेवाले स्थूल शरीरको औदारिक कहते हैं। गर्भसे उत्पन्न होनेवाले शरीर को औदारिक कहते है अथवा जिसका प्रयोजन उदार हो उसे औदारिक कहते हैं । वैक्रियिक नाम कर्मके उदयसे अणिमा आदि अष्टगुणसहित और नाना प्रकार की क्रिया करनेमें समर्थ जो शरीर होता है उसको वैक्रियिक शरीर कहते हैं । वैक्रियिक शरीर धारी जीव मूल शरीरसे अनेक शरीरोंको बना लेता है । देवोंका मूल शरीर जिनेन्द्र देवके जन्म कल्याणक आदि उत्सवों में नहीं जाता है किन्तु उत्तर शरीर हो जाता है।
सूक्ष्मपदार्थका ज्ञान और असंयमके परिहारके लिये छठवें गुणस्थानवर्ती मुनिके मस्तकसे जो एक हाथका सफेद पुतला निकलता है उसको आहारक शरीर कहते हैं ।
विशेष-जब प्रमत्तसंयत मुनिको किसी सूक्ष्मपदार्थमें अथवा संयमके नियमों में सन्देह उत्पन्न होता है तो वह विचारता है कि तीर्थंकरके दर्शन बिना यह सन्देह दूर नहीं होगा और तीर्थंकर इस स्थानमें हैं नहीं। इस प्रकारके विचार करने परही तालुमें रोमाग्रके अष्टम भाग प्रमाण एक छिद्र हो जाता है और उस छिद्रसे एक हाथका बिम्बाकार सफेद पुतला निकलता है। वह पुतला जहाँ पर भी तीर्थकर परमदेव गृहस्थ, छमस्थ, दीक्षत अथवा केवली किसी भी अवस्था के हों, जाता है और तीर्थकरके शरीरको स्पर्श करके लौटकर पुनः उसी तालुछिद्रसे शरीर में प्रविष्ट हो जाता है । तब उस मुनिका संदेह दूर होजाता है और वह सुखी एवं प्रसन्न होता है।
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