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२॥१८-२४]
द्वितीय अध्याय
भावेन्द्रियका स्वरूप
लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम् ॥१८॥ लब्धि और उपयोगको भावेन्द्रिय कहते हैं । आत्मामें ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे होनेवाली अर्थग्रहण करनेकी शक्तिका नाम लब्धि है। आत्माके अर्थको जाननेके लिए जो व्यापार होता है उसको उपयोग कहते हैं।
यद्यपि उपयोग इन्द्रियका फल है फिर भी कार्य में कारणका उपचार करके उपयोगको इन्द्रिय कहा गया है।
___ इन्द्रियोंके नाम
स्पर्शनरसनघाणचक्षुःश्रोत्राणि ॥१९॥ ___ स्पर्शन, रसना, घाण, चक्षु और श्रोत्र ये पाँच इन्द्रियाँ होती हैं। इनकी व्युत्पत्ति करण तथा कर्तृ दोनों साधनोंमें होती है।
इन्द्रियोंके विषय--
स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दास्तदर्थाः ॥२०॥ स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द ये क्रमसे उक्त पांच इन्द्रियोंके विषय होते हैं।
___ मनका विषय
श्रुतमनिन्द्रियस्य ॥२१॥ अनिन्द्रिय अर्थात् मनका विषय श्रुत होता है। अस्पष्ट ज्ञानको श्रुत कहते हैं। अथवा श्रुतज्ञानके विषयभूत अर्थको श्रुत कहते हैं। क्योंकि श्रुतज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशम हो जाने पर श्रुतज्ञानके विषय में मनके द्वारा श्रात्माकी प्रवृत्ति होती है। अथवा श्रुतज्ञान को श्रुत कहते हैं। मनका प्रयोजन यह श्रुतज्ञान है ।
इन्द्रियों के स्वामी
वनस्पत्यन्तानामेकम् ॥२२॥ पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तेजकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवोंके एक स्पर्शन इन्द्रिय होती है। क्योंकि इनके वीर्यान्तराय और स्पर्शन इन्द्रियावरणका क्षयोपशम हो जाता है और शेष इन्द्रियों के सर्वघातिस्पद्धकोंका उदय रहता है ।
कमिपिपीलिकाश्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि ॥२३॥ कृमि आदिके दो, पिपीलिका आदिके तीन, भ्रमर आदिके चार और मनुष्य आदिके पाँच-इस प्रकार इन जीवोंके एक एक इन्द्रिय बढ़ती हुई हैं।
पञ्चेन्द्रिय जीवके भेद
संज्ञिनः समनस्काः ॥२४॥ मन सहित जीव संज्ञी होते हैं । इससे यह भी तात्पर्य निकलता है कि मनरहित जीव असंज्ञी होते हैं। एकेन्द्रियसे चतुरिन्द्रिय पर्यन्त जीव और सम्मूर्छन पंचेन्द्रिय जीव
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