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२।१०] द्वितीय अध्याय
३६७ परमाणुओं को बीचमें गृहीत परमाणुओं को तथा मिश्र परमाणुओं को ग्रहण किया इसके अनन्तर वही जीव उन्हीं स्निग्ध आदि गुणोंसे युक्त उन्ही तीन आदि भावोंसे उन्हीं पुद्गल परमाणुओं को औदारिक आदि शरीर और पर्याप्ति रूपसे ग्रहण करता है। इसी क्रमसे जब समस्त पुद्गलपरमाणुओं का नोकर्म रू.पसे ग्रहण हो जाता है तब एक नोकर्मद्रव्य परिवर्तन होता है।
एक जीवने एक समयमें अष्ट कर्म रूपसे अमुक पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण किया और एक समय अधिक अवधि प्रमाण कालके बाद उन्हें निर्जीण किया। नोकर्मद्रव्यमें बताए गए क्रमके अनुसार फिर वही, जीव उन्हीं परमाणुओं को उन्हीं कर्म रूपसे ग्रहण करे । इस प्रकार समस्त परमाणुओं को जब क्रमशः कर्म रूपसे ग्रहण कर चुकता है तब एक कर्मद्रव्य परिवर्तन होता है। इन नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन और कर्मद्रव्यपरिवतनके समूह का नाम द्रव्य परिवर्तन है।
सर्वजघन्य अवगाहनावाला अपर्याप्त सूक्ष्मनिगोद जीव लोकके आठ मध्य प्रदेशों को अपने शरीरके मध्यमें करके उत्पन्न हुआ और मरा । पुनः उसी अवगाहनासे अङ्गलके असंख्यातवें भाग प्रमाण आकाशके जितने प्रदेश हैं उतनी बार वहीं उत्पन्न हो । फिर अपनी अवगाहना में एक प्रदेश क्षेत्र को बढ़ावे । और इसी क्रमसे जब सर्वलोक उस जीवका जन्म क्षेत्र बन जाय तब एक क्षेत्रपरिवर्तन होता है ।
कोई जीव उत्सर्पिणी कालके प्रथम समय में उत्पन्न हो, पुनः द्वितीय उत्सर्पिणी कालके द्वितीय समयमें उत्पन्न हो । इसी क्रमसे तृतीय चतुर्थ आदि उत्सर्पिणी कालके तृतीय चतुर्थ आदि समयोंमें उत्पन्न होकर उत्सर्पिणी कालके सर्व समयोंमें जन्म ले और इसी क्रमसे मरण भी करे । अवसर्पिणी कालके समयों में भी उत्सर्पिणी काल की तरह ही वही जीव जन्म और मरण को प्राप्त हो तब एक काल परिवर्तन होता ।
भवपरिवर्तन चतुर्गतियोमें परिभ्रमणको भव परिवर्तन कहते हैं । नरक गतिमें जघन्य आयु दश हजार वर्ष है। कोई जीव प्रथम नरममें जघन्य श्रायु वाला उत्पन्न हो, दश हजार वर्षके जितने समय हैं उतनी वार प्रथम नरक में जघन्य आयुका बन्ध कर उत्पन्न हो। फिर वही जीव एक समय अधिक आयुको बढ़ाते हुये क्रमसे तेतीस सागर आयुको नरकमें पूर्ण करे तब एक नरकगतिपरिवर्तन होता है। तिर्यञ्चगति में कोई जीव अन्तर्मुहुर्त प्रमाण जघन्य आयुवाला उत्पन्न हो पुनः द्वितीय वार उसी आयुसे उत्पन्न हो। इस प्रकार एक समय अधिक आयु का बन्ध करते हुये तीन पल्य की आयु को समाप्त करनेपर एक तिर्यग्गति परिवर्तन होता है। मनुष्यगति परिवर्तन तिर्यग्गति परिवर्तनके समान ही समझ लेना चाहिये । देवगति परिवर्तन नरकगति परिवर्तन की तरह ही है। किन्तु देवगति में आयुमें एक समयाधिक वृद्धि इकतीस सागर तक ही करनी चाहिए । कारण मिथ्यादृष्टि अन्तिम ग्रंवेयक तक ही उत्पन्न होता है। इस प्रकार चारों गतिके परिवर्तन है।।
पश्चेन्द्रिय, संज्ञी पर्याप्तक मिथ्यादृष्टी जीवके जो कि ज्ञानावरण कर्म की सर्वजघन्य अन्तः कोटाकोटि स्थिति बन्ध करता है कषायाध्यवसाय स्थान असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं । और इनमें संख्यात भाग वृद्धि, असंख्यात भाग वृद्धि, अनन्त भाग वृद्धि, संख्यात गुण वृद्धि, असंख्यात गुण वृद्धि, अनन्त गुण वृद्धि इस प्रकार की वृद्धि भी होती रहती है। अन्तःकोटाकोटि की स्थिति में सर्वजघन्य कषायाध्यवसायस्थाननिमित्तक अनुभाग अध्यवसायके स्थान असंख्यातलोक प्रमाण होते हैं। सवेजघन्य स्थिति, सर्वजघन्य कषायाध्यवसाय स्थान और सर्वजघन्य अनुभागाध्यवसायके होनेपर सर्वजघन्य योगस्थान होता है।
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