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२।६-७]
द्वितीय अध्याय
औदायिक भावके भेदगतिकषायलिङ्गमिथ्यादर्शनाज्ञानासंयतासिद्धलेश्याश्चतुश्चतुरत्येकैकैकषड्भेदाः॥६॥
चार गति, चार कषाय, तीन वेद, मिथ्यादर्शन, अज्ञान, असंयम, असिद्धत्व, आर लेश्या ये इक्कीस औदायिक भाव हैं।
गतिनाम कर्मके उदयसे उन उन गतियों के भावोंको प्राप्त होना गति है । कषायोंका उदय औदायक है । वेदोंके उदयसे वेद औदयिक होते हैं । मिथ्यात्व कर्मके उदयसे मिथ्यात्व आदयिक है।
ज्ञानावरण कर्म के उदयसे पदार्थका ज्ञान नहीं होना अज्ञान है।
मिश्र भावों में जो अज्ञान है उसका तात्पर्य मिथ्याज्ञानसे हैं और यहाँ अज्ञानका अर्थ ज्ञानका अभाव है।
सभी कर्मों के उदयकी अपेक्षा असिद्ध भाव है। कषायके उदयसे रंगी हुई मन वचन कायकी प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं।
लेश्याके द्रव्य और भावके रूपसे दो भेद हैं। यहाँ भाव लेश्याका ही ग्रहण किया गया है। योगसे मिश्रित कषायकी प्रवृत्तिको लेश्या कहते हैं। कृष्ण, नील कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल इन लेश्याओंके दृष्टान्त निम्न प्रकार हैं
आमके फल खानेके लिए छह पुरुषोंके छह प्रकारके भाव होते हैं। एक व्यक्ति आम खानेके लिए पेड़को जड़से उखाड़ना चाहता है। दूसरा पेड़को पीढ़से काटना चाहता है। तीसरा डालियाँ काटना चाहता है। चौथा फलोंके गुच्छे तोड़ लेना चाहता है। पाचवाँ केवल पके फल तोड़नेकी बात सोचता है। और छठवाँ नीचे गिरे हुए फलोंको ही खाकर परम तृप्त हो जाता है। इसी प्रकारके भाव कृष्ण आदि लेश्याओं में होते हैं।
प्रश्न-आगममें उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगकेवलीके शुक्ललेश्या बताई गई है लेकिन जब उनके कषायका उदय नहीं है तब लेश्या कसे संभव है ?
उत्तर-'उक्त गुणस्थानों में जो योगधारा पहिले कषायसे अनुरञ्जित थी वही इस समय बह रही है, यद्यपि उसका कषायांश निकल गया है। इस प्रकारके भूतपूर्वप्रज्ञापन नयकी अपेक्षा वहाँ लेश्याका सद्भाव है। अयोगकेवलीके इस प्रकारका योग भी नहीं है इसलिए वे पूर्णतः लेश्यारहित होते हैं।
पारिणामिक भाव
जीवभव्याभव्यानि च ॥७॥ जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व ये तीन पारिणामिक भाव हैं । जीवत्व अर्थात् चेतनत्व । सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप पर्याय प्रकट होनेकी योग्यताको भव्यस्व कहते हैं तथा अयोग्यताको अभव्यत्व ।
सूत्रमें दिए गए 'च' शब्दसे अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व, प्रदेशवत्त्व, मूतत्व, अमूर्तत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व आदि भावोंका ग्रहण किया गया है अर्थात् ये भी पारिणामिक भाव हैं।
ये भाव अन्य द्रव्यों में भी पाये जाते हैं इसलिये जीवके असाधारण भाव न होने से सूत्रमें इन भावोंको नहीं कहा है।
प्रश्न-पुद्गल द्रव्यमें चेतनत्व और जीव द्रव्यमें अचेतनत्व कैसे संभव है ? उत्तर-जैसे दीपककी शिखा रूपसे परिणत तेल दीपककी शिखा हो जाता है उसी
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