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तत्त्वार्थवृत्ति-हिन्दी-सार जातिस्मरण, धर्मश्रवण और वेदनाका अनुभव है। चतुर्थ नरकसे सप्तम नरकपर्यन्त जातिस्मरण और वेदनाका अनुभव ये दो सम्यग्दर्शन के बाह्य साधन हैं । तिर्यञ्च और मनुष्योंके जातिस्मरण, धर्मश्रवण और वेदनाका अनुभव ये वाह्य साधन हैं। सौधर्म स्वर्गसे सहस्रार स्वर्ग पर्यन्तके देवोंके जातिस्मरण, धर्मश्रवण, जिनमहिमदर्शन और देवर्द्धिदर्शन ये चार साधन हैं। आनत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्पवासी देवोंके देवर्द्धिदर्शनके बिना तीन ही साधन हैं। नववेयकवासी देवोंके जातिस्मरण और धर्मश्रवण ये दो ही साधन हैं।
प्रश्न-वयकवासी देव अहमिन्द्र होते हैं अतः उनके धर्मश्रवण कैसे हो सकता है ?
उत्तर कोई सम्यग्दृष्टि जीव तत्त्वचर्चा या शास्त्रका मनन करता है, वहाँ उपस्थित दूसरा जीव उस चर्चा से सम्यग्दर्शनको प्राप्त कर लेता है । अथवा प्रमाण, नय और निक्षेप की अपेक्षा बहाँ तत्त्वचर्चा नहीं होती किन्तु सामान्यरूपसे तत्वविचार तो होता ही है। अतः ग्रंवेयकमें भी धर्मश्रवण संभव है।
अनुदिश और अनुत्तरविमानवासी देव सम्यग्दर्शनलहित ही उत्पन्न होते हैं।
अधिकरण दो प्रकारका है- अभ्यन्तर और बाह्य । सम्यग्दर्शनका अभ्यन्तर अधिकरण आत्मा ही है। बाह्य अधिकरण लाकनाडी (बसनाली) है । जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाशका अधिकरण निश्चयनयस स्वप्रदेश ही हैं और व्यवहारनयर आकाश अधिकरण ई । जीवका शरीर और क्षेत्र आदि आधार हैं।
घट पदादि पुदलोंका भूमि आदि आधार है। अपने गुण और पर्यायोंका आधार द्रव्य होता है । स्थिति के दो भेद है-- उत्कृष्ट और जघन्य । उपशम सम्यग्दर्शनकी उत्कृध और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है। क्षायिक सम्यग्दर्शनकी संसारी जीवकी जघन्य स्थिति अन्तमुहर्त है उत्कृष्ट स्थिति आठ वर्ष और अन्तर्मुहतं कम दो पूर्व कोटि सहित तेतीस सागर है। कर इस प्रकार है- कोई मनुष्य कर्मभूमिमें पुर्वकोटि आमुवाला उत्पन्न हुआ और गर्भये आठ वर्ष के बाद अन्तर्मुहूर्त में दर्शन मोहका क्षपण करके सभ्यष्टि होकर सर्वार्थसिद्धि में तेतीस सागरकी आयु लेकर उत्पन्न हुआ। पूनः पूर्वकोटि आयुवाला मनुष्य होकर कर्मक्षर करके मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
मुक्त जीवकी क्षायिक सम्यग्दर्शनकी स्थिति सादि और अनन्त है। क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनकी जघन्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त है । उत्कृष्ट स्थिति ६६ सागर है।
प्रश्न-६६ सागर स्थिति कैसे होती है ? उत्तर-सौधर्म स्वर्गमें २ सागर शुक्रम १६ सागर, शतारमें १८ सागर, और अष्टम ग्रेयेयकम ३० सागर इस प्रकार ६६ सागर होते हैं। अथवा सौधर्म स्वर्ग में दो बार उत्पन्न होनेसे । सागर, सनत्कुमारमें ७ सागर, ब्रह्ममें १० सागर, लान्तवमें १४ सागर और नवम प्रवेयकम २१ सागर इस प्रकार ६६ सागर होते हैं। स्वर्गोंकी आयुके अन्तिम सागरमंसे मनुप्यायु कम कर लेनी चाहिए क्योंकि स्वर्गसे च्युत होकर मनुष्य होता है, पुनः स्वर्ग जाता है। अतः ६६ सागर से अधिक स्थिति नहीं होती।
विधान सामान्यसे सम्यग्दर्शन एक ही है। विशेषसे निसगंज और अधिगमजके भेदसे दो प्रकारका है। उपशम, क्षय और क्षयोपशमके भेदसे उसके तीन भेद हैं।
___ आज्ञा, मार्ग, उपदेश, सूत्र, बीज, संक्षेप,विस्तार अर्थ, अवगाढ और परमावगाढके भेद से सम्यग्दर्शनके दश भेद भी होते हैं। इनका स्वरूप इस प्रकार है
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