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प्रथम अध्याय
श्रुतज्ञान का वर्णनश्रुतं मतिपूर्व द्वयनेकद्वादशभेदम् ॥ २० ॥ श्रुतिज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है और उसके दो, अनेक तथा बारह भेद हैं।
मतिज्ञान श्रुतज्ञानका कारण है। पहिले मतिज्ञान होता है और बादमें श्रुतज्ञान । किसीका ऐसा कहना ठीक नहीं है कि मतिज्ञानको श्रुतज्ञानका कारण होनेसे श्रुतज्ञान मतिज्ञान ही है पृथक् ज्ञान नहीं है । क्योंकि यह कोई नियम नहीं है कि कार्य कारणके समान ही होता है। घटके कारण दण्ड, 'चक्र आदि भी होते हैं लेकिन घट, दण्ड आदि रूप नहीं होता है । अतः श्रुतज्ञान मतिज्ञानसे भिन्न है । मतिज्ञान श्रुतज्ञानका निमित्तमात्र है। श्रुतज्ञान मतिरूप नहीं होता। मतिज्ञानके होनेपर भी बलवान् श्रुतावरण कर्मके उदय होनेसे पूर्ण श्रुतज्ञान नहीं होता।
श्रुतज्ञानको जो अनादिनिधन बतलाया है वह अपेक्षाभेदसे ही। किसी देश या कालमें किसी पुरुषने श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति नहींकी है। अमुक द्रव्यादिकी अपेक्षासे ज्ञानका आदि भी होता है तथा अन्त भी। चतुर्थ श्रादि कालों में, पूर्वविदेह आदि क्षेत्रोंमें और कल्पके आदिमें श्रुतज्ञान सामान्य अर्थात् सन्ततिकी अपेक्षा अनादिनिधन है । जैसे अंकुर और बीजकी सन्तति अनादि होती है । लेकिन तिरोहित श्रुत-ज्ञानका वृषभसेन आदि गणधरोंने प्रवर्तन किया इसलिए वह सादि भी है। भगवान महावीरसे जो शब्दवर्गणाएँ निकलीं वे नष्ट हुई अतः उनकी अपेक्षा श्रुतज्ञानका अन्त माना जाता है। अतः श्रुतज्ञान सादि है और मतिज्ञानपूर्वक होता है।
मीमांसक वेदको अपौरुषेय मानते हैं। लेकिन उनका ऐसा मानना ठीक नहीं है। क्योंकि शब्द, पद और वाक्योंके समूहका नाम ही तो वेद है और शब्द आदि अनित्य हैं तो फिर वेद नित्य कैसे हो सकता है। उनका ऐसा कहना भी ठीक नहीं है कि वेद यदि पौरुषेय होते तो वेदोंके कर्ताका स्मरण होना चाहिये। क्योंकि यह कोई नियम नहीं है कि जिसके कर्ताका स्मरण न हो वह अपौरुषेय है। ऐसा नियम होनेसे चोरीका उपदेश भी
अपौरुषेय हो जायगा और अपोरुषय होनेसे प्रमाण भी हो जायगा। अतः वेद पौरुषेय ही है । दूसरे वादी वेदके कर्ताको मानते ही हैं। नैयायिक चतुराननको, जैन कालासुरको और बौद्ध अष्टकको वेदका कर्ता मानते हैं।
प्रश्न-प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्तिके समय मति और श्रुत दोनों ज्ञानों की उत्पत्ति एक साथ होती है अतः श्रुतज्ञान मतिपूर्वक कैसे हुआ ?
उत्तर-प्रथम सम्यकत्व की उत्पत्ति होनेसे कुमति और कुश्रुतज्ञान सम्यग्ज्ञान रूप हो जाते हैं। प्रथम सम्यक्त्वसे मति और श्रुतज्ञानमें सम्यक्त्वपना आता है किन्तु श्रुतज्ञान की उत्पत्ति तो मतिपूर्वक ही होती है। आराधनासारमें भी कहा है कि जिस प्रकार दीपक और प्रकाशमें एक साथ उत्पन्न होने पर भी कारण-कार्य भाव है उसी तरह सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानमें भी । सम्यग्दर्शन पूर्व में क्रमशः उत्पन्न ज्ञानोंमें सम्यक्त्व व्यपदेश का कारण होता है। यद्यपि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान एक साथ ही उत्पन्न होते हैं लेकिन सम्यग्दर्शन ज्ञान के सम्यक्त्वपने में हेतु होता है जैसे एक साथ उत्पन्न होने वाले दीपक और प्रकाशमें दीपक प्रकाशका हेतु होता है।
प्रश्न-श्रुतज्ञानपूर्वक भी श्रुतज्ञान होता है। जैसे किसीको घदशब्द सुनकर घ और ट अक्षरोंका जो ज्ञान होता है यह मतिज्ञान है, तथा घट शब्दसे घट अर्थका
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