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३५२ तत्त्वार्थवृत्ति-हिन्दी-सार
[११२० ज्ञान श्रुतज्ञान है। घट अर्थके ज्ञानके बाद जलधारण करना घटका कार्य है इत्यादि उत्तरवर्ती सभी ज्ञान श्रुतज्ञान है । अतः यहाँ श्रुत से श्रुतकी उत्पत्ति हुई। उसी प्रकार किसीने धूम देखा यह मतिज्ञान हुआ । और धूम देखकर अग्निको जाना यह श्रु तज्ञान हुआ। पुनः अग्निज्ञान (श्रु तज्ञान ) से अग्नि जलाती है इत्यादि उत्तरकालीन ज्ञान श्रुतज्ञान है। इसलिये श्रुतज्ञान से भी श्रुतज्ञान की उत्पत्ति होती है।
उत्तर-श्रुतज्ञान पूर्वक जो श्रुत होता है वह भी उपचारसे मतिपूर्वक ही कहा जाता है। क्योंकि मतिज्ञानसे उत्पन्न होनेवाला प्रथम श्रुत उपचारसे मति कहा जाता है। अतः ऐसे श्रुतसे उत्पन्न होनेवाला द्वितीय श्रुतज्ञान मतिपूर्वक ही सिद्ध होता है। अतः मतिपूर्वक श्रुत होता है ऐसा मानने में कोई विरोध नहीं है।
श्रुतज्ञानके दो भेद हैं-अङ्गबाह्य और अङ्गप्रविष्ट । अङ्गबाह्य के अनेक और अङ्गप्रविष्ट के बारह भेद हैं।
अङ्गबाह्य के मुख्य चौदह भेद निम्न प्रकार हैं१ सामायिक-इसमें विस्तारसे सामायिकका वर्णन किया गया है । २ स्तव-इसमें चौबीस तीर्थंकरोंकी स्तुति है। ३ वन्दना-- इसमें एक तीर्थंकर की स्तुति की जाती है। ४ प्रतिक्रमण-इसमें किये हुये दोषोंका निराकरण बतलाया है। ५ वैनयिक-इसमें चार प्रकारकी विनयका वर्णन है।। ६ कृतिकर्म--इसमें दीक्षा, शिक्षा आदि सत्कर्मों का वर्णन है।
७ दशवकालिक-इसमें यतियोंके आचारका वर्णन है। इसके वृक्ष, कुसुम आदि दश अध्ययन हैं।
८ उत्तराध्ययन-इसमें भिक्षुओंके उपसर्ग सहनके फलका वर्णन है।
९ कल्पव्यवहार-इसमें. यतियोंको सेवन योग्य विधिका वर्णन और अयोग्य सेवन करने पर प्रायश्चितका वर्णन है।
१० कल्पाकल्प-इसमें यति और श्रावकों के किस समय क्या करना चाहिए क्या नहीं इत्यादि निरूपण है।
११ महाकल्प इसमें यतियोंकी दीक्षा, शिक्षा संस्कार आदिका वर्णन है। १२ पुण्डरीक-इसमें देवपदकी प्राप्ति कराने वाले पुण्यका वर्णन है। १३ महापुण्डरीक---इसमें देवाङ्गनापदके हेतुभूत पुण्यका वर्णन है।
१४ अशीतिका-इसमें प्रायश्चित्तका वर्णन है। इन चौदह भेदोंको प्रकीर्णक कहते हैं।
___ आचार्योंने अल्प आयु, अल्पबुद्धि और हीनबलवाले शिष्यों के उपकारके लिये प्रकीर्णकों की रचना की है। वास्तवमें तीर्थकर परमदेव और सामान्य केलियोंने जो उपदेश दिया उसकी गणधर तथा अन्य आचार्यों ने शास्त्ररूपमें रचना की। और वर्तमान कालवर्ती आचार्य जो रचना करते हैं वह भी आगमके अनुसार होनेसे प्रकीर्णकरूपसे प्रमाण है । प्रकीर्णक शास्त्रोंका प्रमाण २५०३३८० श्लोक और १५ अक्षर हैं ।
अङ्गप्रविष्ट के बारह भेद हैं१ आचाराग-इसमें यतियोंके आचारका वर्णन है। इसके पदोंकी संख्या अठारह
हजार है।
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