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१॥३२]
प्रथम अध्यायः
३५९
है। मिथ्यादर्शनके संसर्गसे इन ज्ञानोंमें मिथ्यापन आ जाता है जैसे कडुवी तुंबीमें दूध रखनेसे वह कड़वा हो जाता है।
प्रश्न-मणि, सोना आदि द्रव्य अपवित्र स्थानमें गिर जानेपर भी दूषित नहीं होते हैं उसी प्रकार मिथ्यादर्शनके संसर्ग होनेपर भी मति आदि ज्ञानोंमें कोई दोष नहीं होना चाहिए ?
____ उत्तर-परिणमन करानेवाले द्रव्यके मिलनेपर मणि, सोना आदि भी दूषित हो जाते हैं। उसी प्रकार मिथ्यादर्शनके संसर्गसे मति आदि ज्ञान भी दूषित हो जाते हैं।
प्रश्न-दूधमें कड़वापन आधारके दोषसे आ जाता है लेकिन कुमति आदि ज्ञानों के विषयमें यह बात नहीं है । जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि मति, श्रुत और अवधिज्ञानके द्वारा रूपादि पदार्थोंको जानता है उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि भी कुमति, कुश्रुत और कुअवधिज्ञानके द्वारा रूपादि पदार्थों को जानता है। उक्त प्रश्न के उत्तरमें आचार्य यह सूत्र कहते हैं
सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् ॥ ३२ ।। सत् ( विद्यमान ) और असत् ( अविद्यमान) पदार्थको विशेषताके बिना अपनी इच्छानुसार जाननेके कारण मिथ्याष्टिका ज्ञान भी उन्मत्त ( पागल) पुरुषके ज्ञानकी तरह मिथ्या ही है।
मिथ्यादृष्टि जीव कभी सत् रूपादिकको असत् और असत् रूपादिकको सत् रूपसे जानता है । और कभी सत् रूपादिकको सत् और असत् रूपादिकको असत् भी जानता है । अतः सत् और असत् पदार्थका यथार्थ ज्ञान न होने के कारण उसका ज्ञान मिथ्या है। जैसे पागल कभी अपनी माताको भार्या और भार्याको माता समझता है और कभी माताको माता और भार्याको भार्या ही समझता है। लेकिन उसका ज्ञान ठीक नहीं है क्योंकि वह माता और भार्याके भेदको नहीं जानता है।
मिथ्यादर्शनके उदयसे आत्मामें पदार्थों के प्रति कारणविपर्यय, भेदाभेदविपर्यय और स्वरूपविपर्यय होता है।
कारणविपर्यय-वेदान्तमतावलम्बी संसारका मूल कारण केवल एक अमूर्त ब्रह्मको ही मानते हैं। सांख्य नित्य प्रकृति (प्रधान) को ही कारण मानते हैं। नैयायिक कहते हैं पृथ्वी, जल, तेज और वायुके पृथक्-पृथक् परमाणु हैं जो अपने अपने कार्योंको उत्पन्न करते हैं। बौद्ध मानते हैं कि पृथ्वी, जल, तेज और वायु ये चार भूत हैं और वर्ण, गन्ध, रस
और स्पर्श ये चार भौतिकधर्म हैं । इन आठोंके मिलनेसे एक अष्टक परमाणु उत्पन्न होता है । वैशेषिक मानते हैं कि पृथ्वीका गुण कर्कशता, जलका गुण द्रवत्व, तेजका गुण उष्णत्व
और वायुका गुण बहना है । इन सबके परमाणु भी भिन्न भिन्न हैं। इस प्रकार कल्पना करना कारणविपर्यास है।
भेदाभेदविपर्यास नैयायिक मानते हैं कि कारणसे कार्य भिन्न ही होता है। कुछ लोग कार्यको कारणसे अभिन्न ही मानते हैं । यह भेदाभेदविपर्यय है।
स्वरूपविपर्यय-रूपादिकको निर्विकल्पक मानना, रूपादिककी सत्ता ही नहीं मानना, रूपादिकके आकार रूपसे परिणत केवल विज्ञान ही मानना और ज्ञानकी आलम्बनभूत बाह्य वस्तुको नहीं मानना । इसी प्रकार और भो प्रत्यक्ष और अनुमानके विरुद्ध कल्पना
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