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तत्त्वार्थ वृत्ति-प्रस्तावना 'तात्पर्यसंज्ञायां तत्त्वार्थवृत्तो' ये दो प्रकारके उल्लेख मिलते हैं। यद्यपि द्वितीय उल्लेखमें इसका तात्पर्य' यह नाम सूचित किया गया है, परन्तु स्वयं श्रुतसागरसूरिको तत्त्वार्थवृत्ति यही नाम प्रचारित करना इष्ट था। वे इस ग्रन्थके अन्तमें इसे तत्त्वार्थवृत्ति ही लिखते हैं। यथा-"एषा तत्त्वार्थवृत्तिः यविचार्यते" आदि। तत्त्वार्थटीका यह एक साधारण नाम है, जो कदाचित पुष्पिकामें लिखा भी गया हो, पर प्रारम्भ श्लोक और अन्तिम उपसंहारवाक्यों 'तत्त्वार्थवृत्ति' इन समुल्लेखोंके बलसे इसका 'तत्त्वार्थवृत्ति' नाम ही फलित होता है।
इस तत्वार्थवृत्तिको श्रुतसागरसूरिने स्वतंत्रवृत्तिके रूपमें बनाया है। परन्तु ग्रन्थके पढ़ते ही यह भान होता है कि यह पूज्यपादकृत सर्वार्थसिद्धिकी ही व्याख्या है। इसमें सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ तो प्रायः पूराका पूरा ही समा गया है। कहीं सर्वार्थसिद्धिकी पंक्तियोंको दो चार शब्द नए जोड़कर अपना लिया है, कहीं उनकी व्याख्या की है, कहीं विशेषार्थ दिया है और कहीं उसके पदोंकी सार्थकता दिखाई है । अत: प्रस्तुतवृत्तिको सर्वार्थसिद्धिकी अविकल व्याख्या तो नहीं कह सकते । हाँ, सर्वार्थसिद्धि को लगाने में इससे सहायता पूरी पूरी मिल जाती है।
श्रुतसागरसूरि अनेक शास्त्रोंके पण्डित थे। उनने स्वयं ही अपना परिचय प्रथम अध्याय की पुष्पिका में दिया है। उसका भाव यह है-"अनवद्य गद्य पद्य विद्याके विनोदसे जिनकी मति पवित्र है, उन मतिसागर यतिराजकी प्रार्थनाको पूरा करनेमें समर्थ, तर्क, व्याकरण, छन्द, अलङ्कार साहित्यादिशास्त्रोंमें जिनकी बुद्धि अत्यन्त तीक्ष्ण है, देवेन्द्रकीति भट्टारकके प्रशिष्य और विद्यानन्दिदेवके शिष्य श्रुतसागरसूरिके द्वारा रचित सस्वार्थश्लोकवातिक राजवातिक सर्वार्थसिद्धि न्यायकुमुदचन्द्र प्रमेयकमलमार्तण्ड प्रचण्ड-अष्टसहली आदि ग्रन्थोंके पाण्डित्यका प्रदर्शन करानेवाली तत्त्वार्थटीकाका प्रथम अध्याय समाप्त हुआ।"
इन्होंने अपने को स्वयं कलिकालसवज्ञ, कलिकालगौतम, उभयभाषाकविचक्रवर्ती, ताकिका शिरोमणि, परमागमप्रवीण आदि विशेषणोंसे भी अलंकृत किया है ।
इन्होंने सर्वार्थ सिद्धिके अभिप्रायके उद्घाटनका पूरा पूरा प्रयत्न किया है । सत्संख्यासूत्रमें सर्वार्थसिद्धिके सूत्रात्मक वाक्योंकी उपपत्तियां इसका अच्छा उदाहरण है। जैसे-(१) सर्वार्थसिद्धिमें क्षेत्रप्ररूपणामें सयोगकेवलीका क्षेत्र लोकका असंख्येय भाग असंख्येय बहुभाग और सर्वलोक बताया है। इसका अभिप्राय इस प्रकार बताया है-"लोकका असंख्येय भाग दण्ड कपाट समुद्घात की अपेक्षा है। सो कैसे ? यदि केवली कायोत्सर्गसे स्थित है तो दण्ड समुद्घातको प्रथम समयमें बारह अंगुल प्रमाण समवृत्त या मूलशरीर प्रमाण समवृत्त रूपसे करते हैं । यदि बैठे हुए है तो शरीरसे तिगुना या वातवलयसे कम पूर्ण लोक प्रमाण दण्ड समुद्धात करते हैं। यदि पूर्वाभिमुख हैं तो कपाट समुद्धातको उत्तर-दक्षिण एक धनुषप्रमाण प्रथम समयमें करते हैं। यदि उत्तराभिमुख हैं तो पूर्व-पश्चिम करते हैं । इस प्रकार लोकका असंख्या-तैकभाग होता है । प्रतर अवस्थामें केवली तीन वातवलयकम पूर्णलोकको निरन्तर आत्मप्रदेशोंसे व्याप्त करते हैं। अत: लोकका असंख्यात बहुभाग क्षेत्र हो जाता है। पूरण अवस्थामें सर्वलाक क्षेत्र हो जाता है।
(२) वेदकसम्यक्त्वकी छयासठ सागर स्थिति-सौधर्मस्वर्गमें २ सागर, शुक्रस्वर्गमें १६ सागर, शतारमें १८ सागर, अष्टम अवेयकमें ३० सागर, इस प्रकार छ्यासठ सागर हो जाते हैं । अथवा सौधर्ममें दो बार उत्पन्न होनेपर ४ सागर, सनत्कुमारमें ७ सागर, ब्रह्म स्वर्गमें दस सागर, लान्तवमें १४ सागर, नवम अवेयकमें ३१ सागर, इस प्रकार ६६ सागर स्थिति होती है । अन्तिम ग्रेवेयककी स्थितिमें मनुष्यायुओंका जितना काल होगा उतना कम समझना चाहिये।
(३) सासादन सम्यग्दृष्टिका लोकका देशोन ८ भाग या १२ भाग स्पर्शन-परस्थान विहारकी अपेक्षा सासादन सम्यग्दृष्टि देव नीचे तीसरे नरक तक जाते हैं तथा ऊपर अच्युत स्वर्ग तक। सो नीचे दो राज़ और ऊपर ६ राजू, इस प्रकार आठ राजू हो जाते हैं । छठवें नरकका सासादन मारणान्तिक समदधात
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