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तत्त्वार्थवृत्ति-प्रस्तावना "तत्त्वार्थसूत्रकर्तारम् उभास्वामिमुनीश्वरम् ।
श्रुतिकेवलिदेशीयं वन्देऽहं गुणमन्दिरम् ॥' इस श्लोकमें उमास्वामीको 'श्रुतकेवलिदेशीय' विशेषण दिया है और यही विशेषण ‘यापनीयसंघाग्रणी शाकटायन आचार्यको भी लगाया जाता है। अत: उमास्वामी यापनीयसंघकी परम्परामें हुए हैं। इधर पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार उमास्वामीको दिगम्बर परम्पराका स्वीकार करते हैं तथा भाष्यको स्वोपज्ञ नहीं मानते। यद्यपि यह भाष्य अकलंकदेवसे पुराना है क्योंकि इनने राजवातिकमें भाष्यगत कारिकाएँ उद्धृत की है और भाष्यमान्य सूत्रपाठकी आलोचना की है तथा भाष्यकी पंक्तियोंको वार्तिक भी बनाया है।
इस तरह तत्त्वार्थसूत्र, भाष्य और उमास्वामीके संबंधके अनेक विवाद है जो गहरी छानबीन और स्थिर गवेषणाकी अपेक्षा रखते हैं। मैंने जो सामग्री इकट्ठी की है. वह इस अवस्थामें नहीं है कि उससे कुछ निश्चित परिणाम निकाला जा सके। अतः तत्त्वार्थवातिककी प्रस्तावनाके लिए यह विषय स्थगित कर रहा हूँ।
वृत्तिकर्ता श्रुतसागरसूरि वि० १६वीं शताब्दीके विद्वान् हैं। इनके समय आदिके सम्बन्धमें श्रीमान् प्रेमीजीने 'जैन साहित्य और इतिहास में सांगोपांग विवेचन किया है। उनका वह लेख यहां साभार उद्धृत किया जाता है।
श्रुतसागरसूरि __ ये मूलसंघ, सरस्वतीगच्छ, बलात्कारगणमें हुए हैं और इनके गुरुका नाम विद्यानन्दि था। विद्यानन्दिदेवेन्द्रकीर्तिके और देवेन्द्रकीर्ति पद्मनन्दिके* शिष्य और उत्तराधिकारी थे। विद्यानन्दिके बाद मल्लिभूषण और उनके बाद लक्ष्मीचन्द्र भट्टारक-पदपर आसीन हुए थे। श्रुतसागर शायद गद्दीपर बैठे ही नहीं, फिर भी वे भारी विद्वान् थे । मल्लिभूषणको उन्होंने अपना गुरुभाई लिखा है।
विद्यानन्दिका भट्टारक-पट्ट गुजरातमें ही किसी स्थानपर था, परन्तु कहां पर था, इसका उल्लेख नहीं मिला।
श्रुतसागरके भी अनेक शिष्य होंगे, जिनमें एक शिष्य श्रीचन्द्र थे जिनकी बनाई हुई वैराग्यमणिमाला उपलब्ध है। आराधनाकथाकोश, नेमिपुराण आदि ग्रन्थोंके कर्ता ब्रह्म नेमिदत्तने भी जो मल्लिभूषणके शिष्य थे-श्रुतसागरको गुरुभावसे स्मरण किया है और मल्लिभूषणकी वहीं गुरुपरपम्परा दी है जो श्रुतसागरके ग्रन्थोंमें मिलती है। उन्होंने सिंहनन्दिका भी उल्लेख किया है जो मालवाकी गद्दीके भट्टारक थे और जिनकी प्रार्थनासे श्रुतसागरने यशस्तिलककी टीका लिखी थी।
__ श्रुतसागरने अपनेको कलिकालसर्वज्ञ, कलिकालगौतम, उभयभाषाकविचक्रवर्ती, व्याकरणकमलमार्तण्ड, तार्किकशिरोमणि, परमागमप्रवीण, नवनवतिमहामहावादिविजेता आदि विशेषणोंसे अलंकृत किया है। ये विशेषण उनकी अहम्मन्यताको खूब अच्छी तरह प्रकट करते हैं।
वे कट्टर तो थे ही असहिष्णु भी बहुत ज्यादा थे। अन्य मतोंका खण्डन और विरोध तो औरोंने भी किया है, परन्तु इन्होंने तो खण्डनके साथ बुरी तरह गालियां भी दी है । सबसे ज्यादा आक्रमण इन्होंने मूर्तिपूजा न करनेवाले लोंकागच्छ (ढूंढ़ियों) पर किया है।.........
अधिकतर टीकाग्रन्थ ही श्रुतसागरने रचे हैं, परन्तु उन टीकाओंमें मूल ग्रन्थकर्ताके अभिप्रायोंकी अपेक्षा उन्होंने अपने अभिप्रायोंको ही प्रधानता दी है । दर्शनपाहुडकी २४वीं गाथाकी टीकामें उन्होंने
*. ये पधनन्दि वही मालूम होते है जिनके विषय में कहा जाता है कि गिरिनार पर सरस्वती देवी से उन्होंने कहला दिया था कि दिगम्बर पन्थ ही सच्चा है। इन्हीं की एक शिष्य शाखा में सकलकीति, विजयकीर्ति और शुभ चन्द्र भट्टारक हुए हैं।
इनकी गही सूरत में थी। देखो 'दानवीर माणिकचन्द्र' पृ०३७ ।
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