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सदादि अनुयोग सदादि अनुयोग-प्रमाण और नयके द्वारा जाने गए तथा निक्षेपके द्वारा अनेक संभवित रूपोंमें सामने रखे गए पदार्थोसे ही तत्त्वज्ञानोपयोगी प्रकृत अर्थका यथार्थ बोध हो सकता है। उन निक्षेपके विषय भूत पदार्थोंमें दृढ़ताकी परीक्षाके लिए या पदार्थके अन्य विविध रूपोंके परिज्ञानके लिए अनुयोग अर्थात् अनुकूल प्रश्न या पश्चाद्भावी प्रश्न होते हैं। जिनसे प्रकृत पदार्थकी वास्तविक अवस्थाका पता लग जाता है। प्रमाण और नय सामान्यतया तत्त्वका ज्ञान कराते हैं। निक्षेप विधिसे अप्रकृतका निराकरणकर प्रस्तुतको छांट लिया जाता है। फिर छंटी हुई प्रस्तुत वस्तुका निर्देशादि और सदादि द्वारा सविवरण पूरी अवस्थाओंका ज्ञान किया जाता है। निक्षेपसे छंटी हुई वस्तुका क्या नाम है ? (निर्देश) कौन उसका स्वामी है ? (स्वामित्व) कैसे उत्पन्न होती है ? (साधन) कहाँ रहती है ? (अधिकरण), कितने कालतक रहती है ? (स्थिति) कितने प्रकारकी है ? (विधान), उसकी द्रव्य-क्षेत्र काल भाव आदिसे क्या स्थिति है। अस्तित्वका ज्ञान 'सत्' है। उसके भेदोंकी गिनती संख्या है। वर्तमान निवास क्षेत्र है। त्रैकालिक निवासपरिधि स्पर्शन है। ठहरनेकी मर्यादा काल है। अमुक अवस्थाको छोड़कर पुनः उस अवस्था प्राप्त होनेतकके विरहकालको अन्तर कहते हैं। औपशमिक आदि भाव है। परस्पर संख्याकृत तारतम्यका विचार अल्पबहुत्व है। सारांश यह कि निक्षिप्त पदार्थका निर्देशादि और सदादि अनुयोगोंके द्वारा यथावत् सविवरण ज्ञान प्राप्त करना मुमुक्षुकी अहिंसा आदि साधनाओंके लिए आवश्यक है। जीवरक्षा करने के लिए जीवकी द्रव्य क्षेत्र काल भाव आदिकी दृष्टि से परिपूर्ण स्थितिका ज्ञान अहिंसकको जरूरी ही है।
इस तरह प्रमाण नय निक्षेप और अनुयोगोंके द्वारा तत्त्वोंका यथार्थ अधिगम करके उनकी दृढ़ प्रतीति और अहिंसादि चारित्रकी परिपूर्णता होनेपर यह आत्मा बन्धनमुक्त होकर स्वस्वरूपमें प्रतिष्ठित हो जाता है। यही मुक्ति है ।
"श्रुतादर्थमनेकान्तमधिगम्याभिसन्धिभिः । परीक्ष्य ताँस्तान् तद्धर्माननेकान् व्यावहारिकान ॥७३॥
नयानुगतनिक्षेपेरुपाय दवेदने । विरचय्यार्थवाक्प्रत्ययात्मभेवान् श्रुतार्पितान् ॥५४॥
अनुयुज्यानुयोगश्च निर्देशादिभिवां गतः । द्रव्याणि जीवादीन्यात्मा विवृद्धाभिनिवेशनः ॥७॥ ___ जीवस्थानगुणस्थानमार्गणास्थानतत्त्ववित् ।
तपोनिर्जीणकर्मायं विमुक्तः सुखमृच्छति ।।७६॥ अर्थात्-अनेकान्तरूप जीवादि पदार्थोंको श्रुत-शास्त्रोंसे सुनकर प्रमाण और अनेक नयोंके द्वारा उनका यथार्थ परिज्ञान करना चाहिए। उन पदार्थोके अनेक व्यावहारिक और पारमार्थिक गुण-धर्मोकी परीक्षा नय दृष्टियोंसे की जाती है। नयदृष्टियोंके विषयभूत निक्षेपोंके द्वारा वस्तुका अर्थ ज्ञान और शब्द आदि रूपसे विश्लेषण कर उसे फैलाकर उनमेंसे अप्रकृतको छोड़ प्रकृतको ग्रहण कर लेना चाहिए। उस छंटे हुए प्रकृत अंशका निर्देश आदि अनुयोगोंसे अच्छी तरह बारबार पूछकर सविवरण पूर्णज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिए। इस तरह जीवादि पदार्थोंका खासकर आत्मतत्त्वका जीवस्थान गुणस्थान और मार्गणा स्थानोंमें दृढ़तर ज्ञान करके उनपर गाढ़ विश्वास रूप सम्यग्दर्शनकी वृद्धि करनी चाहिए। इस तत्त्वश्रद्धा और तत्त्वज्ञानके होनेपर परपदार्थोसे विरक्ति इच्छाविरोधरूप तप और चारित्र आदिसे समस्त कुसंस्कारोंका विनाशकर पूर्व कर्मोंकी निर्जरा कर, यह आत्मा विमुक्त होकर अनन्त चतन्यमय स्वस्वरूपमें प्रतिष्ठित हो जाता है। ।
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