________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
८२
तस्वार्थवृत्ति-प्रस्तावना . ही मनुष्य यह सोचने लगता है कि दूसरा वादी जो कह रहा है उसकी सहानुभूतिसे समीक्षा होनी चाहिये और वस्तुस्थिति मूलक समीकरण होना चाहिये । इस स्वीयस्वल्पता और वस्तुकी अनन्तधर्मताके वातावरणसे निरर्थक कल्पनाओंका जाल टेगा और अहंकारका विनाश होकर मानससमताकी सृष्टि होगी, जो कि अहिंसाका संजीवन बीज है। इस तरह मानस समताके लिए अनेकान्तदर्शन ही एकमात्र स्थिर आधार हो सकता है। जब अनेकान्त दर्शनसे विचारशुद्धि हो जाती है तब स्वभावत: वाणीमें नम्रता और परसमन्वयकी वृत्ति उत्पन्न हो जाती है। वह वस्तुस्थितिको उल्लंघन करनेवाले शब्दका प्रयोग ही नहीं कर सकता। इसीलिए जैनाचार्योने वस्तुकी अनेकधर्मात्मताका द्योतन करनेके लिए 'स्यात्' शब्दके प्रयोगकी आवश्यकता बताई है। शब्दोंमें यह सामर्थ्य नहीं जो कि वस्तुके पूर्णरूपको युगपत् कह सके । वह एक समयमें एक ही धर्म को कह सकता हैं। अत: उसी समय वस्तुमें विद्यमान शेष धर्मों की सत्ताका सूचन करनेके लिए 'स्यात्' शब्दका प्रयोग किया जाता है । 'स्यात्'का 'सुनिश्चित दृष्टिकोण' या 'निर्णीत अपेक्षा' ही अर्थ हैं 'शायद, सम्भव, कदाचित् आदि नहीं। 'स्यादस्ति' का वाच्यार्थ है-'स्वरूपादिकी अपेक्षासे वस्तु है ही' न कि 'शायद है', 'कदाचित है' आदि। संक्षेपतः जहाँ अनेकान्त दर्शन चित्तमें समता, मध्यस्थभाव, वीतरागता, निष्पक्षताका उदय करता है वहाँ स्याद्वाद वाणीमें निर्दोषता आनेका पूरा अवसर देता है ।
इस प्रकार अहिंसाकी परिपूर्णता और स्थायित्वकी प्रेरणाने मानस शुद्धिके लिए अनेकान्तदर्शन और वचन शुद्धिके लिए स्याद्वाद जैसी निधियोंको भारतीय संस्कृतिके कोषागारमें दिया है। बोलते समय वक्ताको सदा यह ध्यान रहना चाहिए कि वह जो बोल रहा है. उतनी ही वस्तु नहीं है, किन्तु बहुत बड़ी है, उसके पूर्णरूप लक शब्द नहीं पहुँच सकते। इसी भावको जताने के लिए वक्ता 'स्यात्' शब्दका प्रयोग करता है। 'स्यात्' शब्द विधिलिङ्में निष्पन्न होता है, जो अपने वक्तव्यको निश्चित रूपमें उपस्थित करता है न कि संशय रूपमें। जैन तीर्थकरोंने इस तरह सर्वांगीण अहिंसाकी साधनाका वैयक्तिक और सामाजिक दोनों प्रकारका प्रत्यक्षानभत मार्ग बताया है। उनने पदार्थोंके स्वरूपका यथार्थ निरूपण तो किया ही, साथ ही पदार्थोके देखनेका, उनके ज्ञान करनेका और उनके स्वरूपको वचन से कहनेका नया वस्तुस्पर्शी मार्ग बताया। इस अहिंसक दृष्टिसे यदि भारतीय दर्शनकारोंने वस्तुका निरीक्षण किया होता तो भारतीय जल्पकथाका इतिहास रक्तरंजित न हुआ होता और धर्म तथा दर्शनके नामपर मानवताका निर्दलन नहीं होता। पर अहंकार और शासन भावना मानवको दानव बना देती है। उस पर भी धर्म और मतका 'अहम्' तो अति दुर्निवार होता है। परन्तु युग युगमें ऐसे ही दानवोंको मानव बनानेके लिए अहिंसक सन्त इसी समन्वय दृष्टि, इसी समता भाव और इसी सर्वांगीण अहिंसाका सन्देश देते आए हैं। यह जैन दर्शनकी ही विशेषता है जो वह अहिंसाकी तह तक पहुँचनेके लिए केवल धार्मिक उपदेश तक ही सीमित नहीं रहा अपि तु वास्तविक स्थितिके आधारसे दार्शनिक गुत्थियों को सुलझानेकी मौलिक दृष्टि भी खोज सका। न केवल दृष्टि ही किन्तु मन वचन और काय इन तीनों द्वारोंसे होनेवाली हिंसाको रोकनेका प्रशस्ततम मार्ग भी उपस्थित कर सका।
आज डॉ भगवान दास जैसे मनीषी समन्वय और सब धर्मोकी मौलिक एकताकी आवाज बुलन्द कर रहे हैं । वे वर्षोंसे कह रहे हैं कि समन्वय दृष्टि प्राप्त हुए बिना स्वराज्य स्थायी नहीं हो सकता, मानव मानव नहीं रह सकता। उन्होंने अपने 'समन्वय' और 'दर्शन का प्रयोजन' आदि ग्रन्थोंमें इसी समन्वय तत्त्वका भूरि भूरि प्रतिपादन किया है। जैन ऋषियोंने इस समन्वय (स्याद्वाद) सिद्धान्त पर ही संख्याबद्ध ग्रन्थ लिखे हैं। इनका विश्वास है कि जबतक दृष्टिमें समीचीनता नहीं आयगी तबतक मतभेद
और संघर्ष बना ही रहेगा। नए दृष्टिकोणसे वस्तु स्थिति तक पहुंचना ही विसंवादसे हटाकर जीवनको संवादी बना सकता है। जैन दर्शनकी भारतीय संस्कृतिको यही देन है। आज हमें जो स्वातन्त्र्यके दर्शन हुए हैं वह इसी अहिंसाका पुण्यफल है। कोई यदि विश्वमें भारतका मस्तक ऊँचा रखता है तो यह निरुपाधि-वर्ण जाति रंग देश आदिकी क्षुद्र उपाधियोंसे रहित-अहिंसा भावना ही
For Private And Personal Use Only