________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
तत्त्वार्थवृत्ति-प्रस्तावना
सृष्टि नहीं करना चाहते थे। उनने इन सभी तत्वोंका यथार्थ स्वरूप बताकर शिष्योंको प्रकाशमें लाकर उन्हें मानस समताकी समभूमिपर ला दिया। उनने बताया कि वस्तुको तुम जिस दृष्टिकोणसे देख रहे हो वस्तु उतनी ही नहीं है,उसमें ऐसे अनन्त दृष्टिकोणोंसे देखे जानेकी क्षमता है, उसका विराट् स्वरूप अनन्त धर्मात्मक है। तुम्हें जो दृष्टिकोण विरोधी मालूम होता है उसका ईमानदारी से विचार करो, वह भी वस्तुमें विद्यमान है। चित्तसे पक्षपातको दुरभिसन्धि निकालो और दूसरेके दृष्टिकोणको भी उतनी ही प्रामाणिकतासे वस्तुमें खोजो, बह वहीं लहरा रहा है। हाँ, बस्तुकी सीमा और मर्यादाका उल्लंघन नहीं होना चाहिए। तुम चाहो कि जड़में चेतनत्व मिल जाय या चेतनमें जडत्व, तो नहीं मिल सकता क्योंकि प्रत्येक पदार्थके अपने निजी धर्म निश्चित हैं। में प्रत्येक वस्तुको अनन्तधर्मात्मक कह रहा हूँ, सर्वधर्मात्मक नहीं। अनन्त धर्मोमें चेतनके सम्भव अनन्त धर्म चेतनमें मिलेंगे तथा अचेतनगत धर्म अचेतनमें । चेतनके गुण-धर्म अचेतनमें नहीं पाये जा सकते और न अचेतन के चेतन में। हाँ, कुछ ऐसे सामान्य धर्म भी हैं जो चेतन और अचेतन दोनोंमें साधारण रूपसे पाए जाते हैं। तात्पर्य यह कि वस्तुमें बहुत गुजाइश है। वह इतनी विराट् है, जो बुम्हारे अनन्त दृष्टिकोणोंसे देखी और जानी जा सकती है। एक क्षुद्र-दृष्टिका आग्रह करके दूसरेकी दृष्टिका तिरस्कार करना या अपनी दृष्टिका अहंकार करना वस्तुके स्वरूपकी नासमझीका परिणाम है। हरिभद्र सूरिने बहुत सुन्दर लिखा है कि--
"आग्रही बत निनीषति युक्तिं तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा। पक्षपातरहितस्य तु युक्तियत्र तत्र मतिरेति निवेशम् ॥" (लोकतत्त्वनिर्णय)
अर्थात्-आग्रही व्यक्ति अपने मतपोषणके लिए युक्तियाँ दड़ता है, युक्तियोंको अपने मतकी ओर ले जाता है, पर पक्षपातरहित मध्यस्थ व्यक्ति यक्तिसिद्ध वस्तूस्वरूपको स्वीकार करने में ही अपनी मति की सफलता मानता है।
____ अनेकान्त दर्शन भी यही सिखाता है कि युक्तिसिद्ध वस्तुस्वरूपकी ओर अपने मतको लगाओ. न कि अपने निश्चित मतकी ओर वस्तु और युक्तिकी खींचातानी करके उन्हें बिगाड़नेका दुष्प्रायास करो, और न कल्पनाकी उड़ान इतनी लम्बी लो जो वस्तु की सीमाको ही लांघ जाय । तात्पर्य यह है कि मानससमताके लिए यह वस्तुस्थितिमूलक अनेकान्त तत्त्वज्ञान अत्यावश्यक है। इसके द्वारा इस नरतनधारी को ज्ञात हो सकेगा कि वह कितने पानी में है, उसका ज्ञान कितना स्वल्प है, और वह किस दुरभिमानसे हिसक मतवादका सर्जन करके मानवसमाजका अहित कर रहा है। इस मानस अहिंसात्मक अनेकान्त दर्शनसे विचारोंमें या दृष्टिकोणोंमें कामचलाऊ समन्वय या ढीलाढाला समझौता नहीं होता, किन्तु वस्तुस्वरूपके आधारसे यथार्थ तत्त्वज्ञानमूलक संवाद दृष्टि प्राप्त होती है ।
___डॉ० सर राधाकृष्णन् इण्डियन फिलासफी (जिल्द १ पृ० ३०५-६) में स्याद्वादके ऊपर अपने विचार प्रकट करते हुए लिखते हैं कि--"इससे हमें केवल आपेक्षिक अथवा अर्धसत्यका ही ज्ञान हो सकता है, स्याद्वादसे हम पूर्ण सत्यको नहीं जान सकते। दूसरे शब्दोंमें-स्याद्वाद हमें अर्धसत्योंके पास लाकर पटक देता है और इन्हीं अर्धसत्योंको पूर्ण सत्य मान लेनेकी प्रेरणा करता है। परन्तु केवल निश्चित अनिश्चित अर्धसत्योंको मिलाकर एक साथ रख देनेसे वह पूर्णसत्य नहीं का
त्य नहीं कहा जा सकता।" आदि। क्या सर राधाकृष्णन यह बताने की कृपा करेंगे कि स्याद्वादने निश्चित अनिश्चित अर्धसत्योंको पूर्ण सत्य माननेकी प्रेरणा कैसे की है ? हाँ, वह वेदान्तकी तरह चेतन और अचेतनके काल्पनिक अभेदकी दिमागी दौड़में अवश्य शामिल नहीं हुआ, और न वह किसी ऐसे सिद्धान्तका समन्वय करनेकी सलाह देता है जिसमें वस्तुस्थितिकी उपेक्षा की गई हो। सर राधाकृष्णन्को पूर्णसत्य रूपसे वह काल्पनिक अभेद या ब्रह्म इष्ट है जिसमें चेतन अचेतन मुर्त अमर्त सभी काल्पनिक रीतिसे समा जाते हैं। वे स्याद्वादको समन्वयदृष्टिको अर्धसत्योंके पास लाकर पटकना समझते हैं, पर जब प्रत्येक वस्तु स्वरूपतः अनन्तधर्मात्मक
For Private And Personal Use Only