________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ग्रन्थ का स्वरूप
८५
मूलभूत तत्त्वोंको संग्रह करनेकी असाम्प्रदायिक दृष्टिसे हुई है कि इसे दोनों जैन सम्प्रदाय थोड़े बहुत पाठभेदसे प्रमाण मानते आए हैं। श्वे० परम्परामें जो पाठ प्रचलित है उसमें और दिगम्बर पाठमें कोई विशिष्ट साम्प्रदायिक मतभेद नहीं है। दोनों परम्पराओंके आचार्योंने इसपर दशों टीका ग्रन्थ लिखे हैं। इस सुत्र ग्रन्थको दोनों परम्पराओंमें एकता स्थापना का मूल आधार बनाया जा सकता है।।
इसे मोक्षशास्त्र भी कहते हैं क्योंकि इसमें मोक्षके मार्ग और तदुपयोगी जीवादि तत्त्वोंका ही सवि स्तार निरूपण है। इसमें दश अध्याय हैं। प्रथमके चार अध्यायोंमें जीवका, पांचवेंमें अजीव का, छटवें और सातवें अध्यायमें आस्रवका, आठवें अध्यायमें बन्धका, नौवें में संवरका तथा दशवें अध्यायमें मोक्षका वर्णन है। प्रथम अध्यायमें मोक्षकामार्ग सम्यग्दर्शन सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्रको बताकर जीवादि सात तत्त्वोंके अधिगमके उपाय प्रमाण नय निक्षेप और निर्देशादि सदादि अनुयोगोंका वर्णन है। पांच ज्ञान उनका विषय आदिका निरूपण करके उनमें प्रत्यक्ष परोक्ष विभाग उनका सम्यक्त्व मिथ्यात्व और नयोंका विवेचन किया गया है। द्वितीय अध्यायमें जीवके औपशमिक आदि भाव, जीवका लक्षण, शरीर, इन्द्रियाँ, योनि जन्म आदिका सविस्तार निरूपण है। तृतीय अध्यायमें जीवके निवासभूत-अधोलोक और मध्यलोक गत भगोलका उसके निवासियोंकी आयु कायस्थिति आदिका पूरा पूरा वर्णन है। चौथे अध्यायमें ऊर्बलोकका , देवोंके भेद लेश्याएँ आयु काय परिवार आदिका वर्णन है। पांववें अध्यायमें अजीवतत्त्व अर्थात् पुद्गल धम अधर्म आकाश और काल द्रव्योंका समग्र वर्णन है। द्रव्योंकी प्रदेश संख्या, उनके उपकार, शब्दादिका पुद्गल पर्यायत्व, स्कन्ध · बनने की प्रक्रिया आदि पुद्गल द्रव्यका सर्वागीण विवेचन है। छठवें अध्यायमें ज्ञानावरणादि कर्मोके आस्रवका सविस्तार निरूपण है। किन किन वृत्तियों और प्रवृत्तियोंसे किस किस कर्मका आस्रव होता है, कैसे आस्रवमें विशेषता होती है, कौन कर्म पुण्य है, और कौन पाप आदिका विशद विवेचन है। सातवें अध्यायमें शुभ आस्रवके कारण, पुण्यरूप अहिंसादि ब्रतोंका वर्णन है। इसमें व्रतोंकी भावनाएँ उनके लक्षण अतिचार आदिका स्वरूप बताया गया है। आठवें अध्यायमें प्रकृतिबन्ध आदि चारों बन्धोंका, कर्मप्रकृतियोंका उनकी स्थिति आदिका निरूपण हैं। नौवें अध्यायमें संवर तत्त्वका पूरा पूरा निरूपण है। इसमें गुप्ति समिति धर्म अनुप्रेक्षा परिषहजय चारित्र तप ध्यान आदिका सभेदप्रभेद निरूपण है। दशवें अध्यायमें मोक्षका वर्णन है । सिद्धोंमें भेद किन निमित्तोंसे हो सकता है। जीव ऊर्ध्वगमन क्यों करता है ? सिद्ध अवस्थामें कौन कौन भाव अवशिष्ट रह जाते हैं आदिका निरूपण है।
यह अकेला तत्त्वार्थसूत्र जैन ज्ञान, जैन भूगोल, खगोल, जनतत्त्व, कर्मसिद्धान्त, जैन चारित्र आदि समस्त मुख्य मुख्य विषयोंका अपूर्व आकर है।
मंगल श्लोक-'मोक्षमार्गस्य नेतारम् श्लोक तत्त्वार्थसूत्रका मंगल श्लोक है या नहीं यह विषय विवादमें पड़ा हुआ है। यह श्लोक उमास्वामि कर्तृक है इसका स्पष्ट उल्लेख श्रुतसागरसूरिने प्रस्तुत तत्त्वार्थवृत्तिमें किया है। वे इसकी उत्थानिकामें लिखते हैं कि-द्वैयाक नामक भव्यके प्रश्नका उत्तर देनेक लिए उमास्वामि भट्टारकने यह मंगल श्लोक बनाया। द्वैयाकका प्रश्न है-'भगवन्, आत्माका हित क्या है?' उमास्वामी उसका उत्तर 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' सूत्र में देते हैं। पर उन्हें. उत्तर देनेके पहिले मंगलाचरण करनेकी आवश्यकता प्रतीत होने लगती है। श्रुतसागरके पहिले विद्यानन्दि आचार्यने आप्त परीक्षा (पृ० ३) में भी इस श्लोकको सूत्रकारके नामसे उद्धृत किया है। पर यही विद्यानन्द 'तत्त्वार्थसूत्रका रैः उमास्वामिप्रभृतिभिः' जैसे वाक्य भी आप्त परीक्षा (पृ० ५४) में लिखते हैं जो उमास्वामिके साथ ही ‘साथ प्रभृति शब्दसे सूचित होनेवाले आचार्योंको भी तत्त्वार्थसूत्रकार माननेका या सूत्र शब्दकी गौणार्थताका प्रसंग उपस्थित करते हैं । यद्यपि अभयनन्दि श्रुतसागर जैसे पश्चाद्वर्ती ग्रन्थकारोंने इस श्लोकको तत्त्वार्थसूत्रका मंगल लिख दिया है पर इनके इस लेखमें निम्नलिखित अनुपपत्तियाँ हैं जो इस श्लोकको पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धिका मंगलश्लोक माननेको बाध्य करती हैं
(१) पूज्यपादने इस मंगलश्लोककी न तो उत्थानिका लिखी और न व्याख्या की। इस मंगलश्लोक
For Private And Personal Use Only