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स्याद्वाद
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से प्रमाणसप्तभंगीका प्रत्येक वाक्य भिन्न हो जाता है । नयसप्तभंगीमें एक धर्म प्रधान होता है तथा अन्यधर्म गौण । इसमें मुख्यधर्म ही गृहीत होता है, शेषका निराकरण तो नहीं होता पर ग्रहण भी नहीं होता। यही सकलादेश और विकलादेशका पार्थक्य है । 'स्यात्' शब्दका प्रयोग दोनोंमें होता है। सकलादेशमें प्रयुक्त होनेवाला स्यात् शब्द यह बताता है कि जैसे अस्तिमुखेन सकल वस्तुका ग्रहण किया गया है वैसे 'नास्ति' आदि अनन्त मुखोंसे भी ग्रहण हो सकता है। विकलादेशका स्यात् शब्द विवक्षित धर्मके अतिरिक्त अन्य शेष धर्मोंका वस्तुमें अस्तित्व सूचित करता है। .
स्थाद्वाद स्थाद्वाद-जैनदर्शनने सामान्यरूपसे यावत् सत्को परिणामीनित्य माना है । प्रत्येक सत् अनन्त धर्मात्मक है । उसका पूर्णरूप वचनोंके अगोचर है । अनेकान्तात्मक अर्थका निर्दुष्ट रूपसे कथन करनेवाली भाषा स्याद्वाद रूप होती है। उसमें जिस धर्मका निरूपण होता है उसके साथ 'स्यात्' शब्द इसलिए लगा दिया जाता है जिससे पूरी वस्तू उसी धर्मरूप न समझ ली जाय । अविवक्षित शेष धर्मोका अस्तित्व भी उसमें है यह प्रतिपादन 'स्यात' शब्दसे होता है।
स्याद्वादका अर्थ है-स्यात्-अमुक निश्चित अपेक्षासे । अमुक निश्चित अपेक्षासे घट अस्ति ही है और अमुक निश्चित अपेक्षासे घट नास्ति ही है । स्यात्का अर्थ न शायद है न सम्भवतः और न कदाचित् ही। 'स्यात्' शब्द सुनिश्चित दृष्टिकोणका प्रतीक है । इस शब्दके अर्थको पुराने मतवादी दार्शनिकोंने ईमानदारीसे समझनेका प्रयास तो नहीं ही किया था किंतु आज भी वैज्ञानिक दृष्टिकी दुहाई देनेवाले दर्शनलेखक उसी भ्रान्त परम्पराका पोषण करते आते हैं।
स्याद्वाद-सुनयका निरूपण करनेवाली भाषा पद्धति है। 'स्यात्' शब्द यह निश्चितरूपसे बताता है कि वस्तु केवल इसी धर्मवाली ही नहीं है उसमें इसके अतिरिक्त भी धर्म विद्यमान हैं। तात्पर्य यह कि-अविवक्षित शेष धर्मोका प्रतिनिधित्व स्यात् शब्द करता है । 'रूपवान् घट:' यह वाक्य भी अपने भीतर 'स्यात्' शब्दको छिपाए हुए है। इसका अर्थ है कि 'स्यात् रूपवान् घटः' अर्थात् चक्षु इन्द्रियके द्वारा ग्राह्य होनेसे या रूप गुणकी सत्ता होनेसे घड़ा रूपवान् है, पर रूपवान् ही नहीं है उसमें रस गन्ध स्पर्श आदि अनेक गुण, छोटा, बड़ा आदि अनेक धर्म विद्यमान हैं। इन अविवक्षित गुणधर्मोके अस्तित्वकी रक्षा करनेवाला 'स्यात्' शब्द है । 'स्यात्' का अर्थ शायद या सम्भावना नहीं है किन्तु निश्चय है। अर्थात् घड़े में रूपके अस्तित्वकी सूचना तो रूपवान् शब्द दे ही रहा है। पर उन उपेक्षित शेष धर्मोंके अस्तित्वकी सूचना 'स्यात्' शब्दसे होती है। सारांश यह कि 'स्यात्' शब्द 'रूपवान् के साथ नहीं जुटता है, किन्तु अविवक्षित धर्मोके साथ । वह 'रूपवान्'को पूरी वस्तु पर अधिकार जमानेसे रोकता है और कह देता है कि वस्तु बहुत बड़ी है उसमें रूप भी एक है। ऐसे अनन्त गुणधर्म वस्तुमें लहरा रहे हैं। अभी रूपकी विवक्षा या उसपर दृष्टि होनेसे वह सामने है या शब्दसे उच्चरित हो रहा है सो वह मुख्य हो सकता है पर वही सब कुछ नहीं है । दूसरे क्षणमें रसकी मुख्यता होनेपर रूप गौण हो जायगा और वह अविवक्षित शेष धर्मोकी राशिमें शामिल हो जायगा।
स्यात्' शब्द एक प्रहरी है, जो उच्चरित धर्मको इधर उधर नहीं जाने देता। वह उन अविवक्षित धर्मोका संरक्षक है। इसलिए 'रूपवान्' के साथ 'स्यात्' शब्दका अन्वय करके जो लोग घड़ेमें रूपकी भी स्थितिको स्यात्का शायद या संभावना अर्थ करके संदिग्ध बनाना चाहते हैं वे भ्रममें हैं। इसीतरह 'स्यादस्ति घट:' वाक्यमें 'घट: अस्ति' यह अस्तित्व अंश घटमें सुनिश्चितरूपसे विद्यमान है । स्यात् शब्द उस अस्तित्वकी स्थिति कमजोर नहीं बनाता किन्तु उसकी वास्तविक आंशिक स्थितिकी सूचना देकर अन्य नास्ति आदि धर्मोके सद्भावका प्रतिनिधित्व करता है । सारांश यह कि 'स्यात्' पद एक स्वतंत्र पद है जो वस्तुके शेषांशका प्रतिनिधित्व करता है। उसे डर है कि कहीं अस्ति नामका धर्म, जिसे शब्दसे उच्चरित होनेके कारण प्रमुखता मिली है, पूरी वस्तुको न हड़प जाय, अपने अन्य नास्ति
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