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स्याद्वाद
गुण धर्म और शक्ति आदिकी दृष्टि से अनेक है।' कृपा कर सोचिए कि वस्तुमें जब अनेक विरोधी धर्मोका प्रत्यक्ष हो ही रहा है और स्वयं वस्तु अनन्त विरोधी धर्मोंका अविरोधी क्रीड़ास्थल है तब हमें उसके स्वरूपको विकृत रूपमें देखनेकी दुर्दृष्टि तो नहीं करनी चाहिए। जो 'स्यात्' शब्द वस्तुके इस पूर्णरूप दर्शनकी याद दिलाता है उसे ही हम 'विरोध संशय' जैसी गालियोंसे दुरदुराते हैं। किमाश्चर्यमत: परम् । यहाँ धर्मकीतिका यह श्लोकांश ध्यानमें आ जाता है कि
"यदीयं स्वयमर्थेभ्यो रोचते तत्र के वयम्" अर्थात्-यदि यह अनेकधर्मरूपता वस्तुको स्वयं पसन्द है, उसमें है, वस्तु स्वयं राजी है तो हम बीचमें काजी बननेवाले कौन ? जगत्का एक एक कण इस अनन्तधर्मताका आकर है। हमें अपनी दृष्टि निर्मल और विशाल बनानेकी आवश्यकता है । वस्तुमें कोई विरोध नहीं है। विरोध हमारी दृष्टिमें है । और इस दृष्टिविरोधकी अमृता(गुर बेल) स्यात्' शब्द है, जो रोगीको कटु तो जरूर मालूम होती है पर इसके बिना यह दृष्टिविषम-ज्वर उतर भी नहीं सकता।
प्रो० बलदेव उपाध्यायने भारतीय दर्शन (पृ० १५५) में स्याद्वादका अर्थ बताते हुए लिखा है कि-"स्यात् (शायद, सम्भवतः) शब्द अस् धातुके विधिलिंगके रूपका तिङन्त प्रतिरूपक अव्यय माना जाता है। घड़े के विषयमें हमारा परामर्श ‘स्यादस्ति-संभवतः यह विद्यमान है। इसी रूपमें होना चाहिए।" यहाँ 'स्यात्' शब्दको शायदका पर्यायवाची तो उपाध्यायजी स्वीकार नहीं करना चाहते । इसीलिए वे शायद शब्दको कोष्ठकमें लिखकर भी आगे 'संभवतः' शब्दका समर्थन करते हैं। वैदिक आचार्योंमें शंकराचार्यने शांकरभाष्यमें स्याद्वादको संशयरूप लिखा है इसका संस्कार आज भी कुछ विद्वानोंके माथेमे पड़ा हुआ है और वे उस संस्कारवश स्यात्का अर्थ शायद लिख ही जाते हैं । जब यह स्पष्ट रूपसे अवधारण करके कहा जाता है कि-'घटः स्यादस्ति अर्थात घड़ा अपने स्वरूपसे है ही।' 'घट: स्याम्नास्ति-घट स्वभिन्न पर रूपसे नहीं ही है' तब संशयको स्थान कहाँ है ? स्यात् शब्द जिस धर्मका प्रतिपादन किया जा रहा है उससे भिन्न अन्य धर्मोके सद्भावको सूचित करता है। वह प्रति समय श्रोता को यह सूचना देना चाहता है कि वक्ताके शब्दोंसे वस्तुके जिस स्वरूपका निरूपण हो रहा है वस्तु उतनी ही नहीं है उसमें अन्य धर्म भी विद्यमान है । जब कि संशय और शायदमें एक धर्म निश्चित नहीं होता। जैनके अनेकान्तमें अनन्त ही धर्म निश्चित हैं, और उनके दृष्टिकोण भी निश्चित हैं तब संशय और शायदकी उस भ्रान्त परम्पराको आज भी अपनेको तटस्थ माननेवाले विद्वान् भी चलाए जाते हैं । यह रूढ़िवादका ही माहात्म्य है !
इसी संस्कारवश प्रो० बलदेवजी स्यात्के पर्यायवाचियोंमें शायद शब्दको लिखकर (पृ०१७३) जैन दर्शनकी समीक्षा करते समय शंकराचार्यकी बकालत इन शब्दोंमें करते है कि-"यह निश्चित ही है कि इसी समन्वय दृष्टिसे वह पदार्थों के विभिन्न रूपोंका समीकरण करता जाता तो समग्र विश्वमें अनुस्यूत परम तत्त्व तक अवश्य ही पहुँच जाता। इसी दृष्टिको ध्यानमें रखकर शंकराचार्यने इस 'स्याद्वाद'का मामिक खण्डन अपने शारीरिक भाष्य (२२२१३३) में प्रबल युक्तियोंके सहारे किया है ।" पर उपाध्यायजी, जब आप स्यात्का अर्थ निश्चित रूपसे 'संशय' नहीं मानते तब शंकराचार्यके खंण्डन का मार्मिकत्व क्या रह जाता है ? आप कृपाकर स्व० महामहोपाध्याय डॉ० गंगानाथमाके इन वाक्योंको देखें--- - "जबसे मैंने शंकराचार्य द्वारा जैन सिद्धान्तका खंडन पढ़ा है, तबसे मुझे विश्वास हुआ है कि इस सिद्धान्तमें बहुत कुछ है जिसे वेदान्तके आचार्यों ने नहीं समझा।"
श्री फणिभूषण अधिकारी तो और स्पष्ट लिखते हैं कि-"जैनधर्मके स्यावाद सिद्धान्तको जितना गलत समझा गया है उतना किसी अन्य सिद्धान्तको नहीं। यहाँ तक कि शंकराचार्य भी इस .
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