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तत्त्वार्थवत्ति-प्रस्तावना दोषसे मुक्त नहीं हैं। उन्होंने भी इस सिद्धान्तके प्रति अन्याय किया है। यह बात अल्पज्ञ पुरुषोंके लिए क्षम्य हो सकती थी। किन्तु यदि मुझे कहने का अधिकार है तो मैं भारतके इस महान् विद्वान्के लिए तो अक्षम्य ही कहूँगा, यद्यपि मैं इस महर्षिको अतीव आदरकी दृष्टिसे देखता हूँ। ऐसा जान पड़ता है कि उन्होंने इस धर्मके दर्शनशास्त्रके मूलग्रन्थोंके अध्ययनकी परवाह नहीं की।"
जैन दर्शन स्याद्वाद सिद्धान्तके अनुसार वस्तुस्थितिके आधारसे समन्वय करता है। जो धर्म वस्तुमें विद्यमान हैं उन्हींका समन्वय हो सकता है। जनदर्शनको आप वास्तव बहुत्ववादी लिख आये हैं। अनेक स्वतंत्र सत् व्यवहारके लिए सद्रूपसे एक कहे जाये पर वह काल्पनिक एकत्व वस्तु नहीं हो सकता? यह कैसे सम्भव है कि चेतन और अचेतन दोनों ही एक सत्के प्रातिभासिक विवर्त हों ? जिस काल्पनिक समन्वयकी ओर उपाध्यायजी संकेत करते हैं उस ओर भी जैन दार्शनिकोंने प्रारम्भसे ही दृष्टिपात किया है। परमसंग्रह नयकी दृष्टिसे सद्रूपसे यावत् चेतन अचेतन द्रव्योंका सग्रह करके “एक सत्' इस शब्दव्यवहारके करनेमें जैन दार्शनिकोंको कोई आपत्ति नहीं है । सैकड़ों काल्पनिक व्यवहार होते हैं, पर इससे मौलिक तत्त्वव्यवस्था नहीं की जा सकती ? एक देश या एक राष्ट्र अपनेमें क्या वस्तु है ? समय समय पर होनेवाली बुद्धिगत दैशिक एकताके सिवाय एक देश या । एक राष्ट्र का स्वतंत्र अस्तित्व ही क्या है ? अस्तित्व जुदा जुदा भूखण्डोंका अपना है। उसमें व्यवहारकी सुविधाके लिए प्रान्त और देश संज्ञाएँ जैसे काल्पनिक हैं व्यवहारसत्य हैं उसी तरह एक सत् या एक ब्रह्म काल्पनिकसत् होकर व्यवहारसत्य तो बन सकता है और कल्पनाकी दौड़का चरम बिन्दु भी हो सकता है पर उसका तत्त्वसत् या परमार्थसत् होना नितान्त असम्भव है। आज विज्ञान एटम तकका विश्लेषण कर चुका है और सब मौलिक अणुओंकी पृथक् सत्ता स्वीकार करता है। उनमें अभेद और इतना बड़ा अभेद जिसमें चेतन अचेतन मूर्त अमूर्त आदि सभी लीन हो जायें कल्पनासाम्राज्यकी अन्तिम कोटि है ।
और इस कल्पनाकोटिको परमार्थसत् न मानने के कारण यदि जैन दर्शनका स्याद्वाद सिद्धान्त आपको मूलभूत तत्त्वके स्वरूप समझाने में नितान्त असमर्थ प्रतीत होता है तो हो, पर वह वस्तुसीमाका उल्लंघन नहीं कर सकता और न कल्पनालोककी लंबी दौड़ ही लगा सकता है।
स्यात् शब्दको उपाध्यायजी संशयका पर्यायवाची नहीं मानते यह तो प्रायः निश्चित है क्योंकि आप स्वयं लिखते हैं (पृ० १७३ ) कि--"यह अनेकान्तवाद संशयवादका रूपान्तर नहीं है" पर आप उसे संभववाद अवश्य कहना चाहते हैं। परन्तु स्यात्का अर्थ 'संभवतः' करना भी न्याय संगत नहीं है क्योंकि संभावना संशयमें जो कोटियां उपस्थित होती हैं उनकी अर्धनिश्चितताकी ओर संकेत मात्र है, निश्चय उससे भिन्न ही है। उपाध्यायजी स्याद्वादको संशयवाद और निश्चयवादके बीच संभावनावादकी जगह रखना चाहते हैं जो एक अनध्यवसायात्मक अनिश्चयके समान है । परन्तु जब स्याद्वाद स्पष्टरूपसे डंकेकी चोट यह कह रहा है कि-घड़ा स्यादस्ति अर्थात् अपने स्वरूप, अपने क्षेत्र, अपने काल और अपने आकार इस स्वचतुष्टयकी अपेक्षा है ही यह निश्चित अवधारण है। घड़ा स्वसे भिन्न यावत् 'परपदार्थोकी दृष्टि से नहीं ही है यह भी निश्चित अवधारण है। इस तरह जब दोनों धर्मोका अपने अपने दृष्टिकोणसे घड़ा विरोधी आधार है तब घड़ेको हम उभयदृष्टिसे अस्ति-नास्ति रूप भी निश्चित ही कहते हैं। पर शब्दमें यह सामर्थ्य नहीं है कि घटके पूर्णरूपको-जिसमें अस्ति-नास्ति जैसे एक-अनेक नित्य-अनित्य आदि अनेकों युगल-धर्म लहरा रहे हैं-कह सकें, अतः समग्रभावसे पड़ा अवक्तव्य है । इस प्रकार जब स्याद्वाद सुनिश्चित दृष्टिकोणोंसे तत्तत् धर्मोके वास्तविक निश्चयकी घोषणा करता
तब इसे संभावनावादमें कैसे रखा जा सकता है ? स्यात् शब्दके साथ ही एवकार भी लगा रहता है जो निर्दिष्ट धर्मके अवधारणको सूचित करता है तथा स्यात् शब्द उस निर्दिष्ट धर्मसे अतिरिक्त अन्य धर्मोकी निश्चित स्थितिकी सूचना देता है। जिससे श्रोता यह न समझ ले कि वस्तु इसी धर्मरूप है । यह स्याद्वाद
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