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तत्त्वार्थवत्ति-प्रस्तावना
रूप क्रियासे, जातिवाचक अश्वशब्द आशुगमनरूप क्रियासे, क्रियावाचक चलति शब्द चलनेरूप क्रियासे नामवाचक यदृच्छाशब्द देवदत्त आदि भी 'देवने इसको दिया' इस क्रियासे निष्पन्न हुए हैं। इस तरह ज्ञान, अर्थ और शब्दको आश्रय लेकर होनेवाले ज्ञाताके अभिप्रायोंका समन्वय इन नयोंमें किया गया है। यह समन्वय एक खास शर्तपर हुआ है। वह शर्त यह है कि कोई भी दृष्टि या अभिप्राय अपने प्रतिपक्षी अभिप्रायका निराकरण नहीं कर सकेगा। इतना हो सकता है कि जहाँ. एक अभिप्रायकी मुख्यता रहे वहाँ दूसरा अभिप्राय गौण हो जाय । यही सापेक्षभाव नयका प्राण है, इसीसे नय सुनय कहलाता है। आ० समन्तभद्र आदिने सापेक्षको सुनय तथा निरपेक्षको दुर्नय बतलाया है।
___ इस संक्षिप्त कथनमें सूक्ष्मतासे देखा जाय तो दो प्रकारकी दृष्टियाँ ही मुख्यरूपसे कार्य करती हैं एक अभेद दृष्टि और दूसरी भेददृष्टि । इन दृष्टियोंका अवलम्बन चाहे ज्ञान हो या अर्थ अथवा शब्द, पर कल्पना भेद या अभेद दो ही रूप से की जा सकती है । उस कल्पनाका प्रकार चाहे कालिक, दैशिक या स्वारूपिक कुछ भी क्यों न हो । इन दो मुल आधारभूत दृष्टियोंको द्रव्यनय और पर्यायनय कहते हैं। अभेदको ग्रहण करनेवाला द्रव्याथिकनय है तथा भेदग्राही पर्यायाथिकनय है। इन्हें मूलनय कहते हैं, क्योंकि समस्त नयोंके मूल आधार यही दो नय होते हैं। नंगमादिनय तो इन्हींकी शाखा-प्रशाखाएँ हैं । द्रव्यास्तिक, मातृकापदास्तिक, निश्चयनय, शुद्धनय आदि शब्द द्रव्याथिकके अर्थमें तथा उत्पन्नास्तिक, पर्यायास्तिक, व्यवहारनय, अशुद्धनय, आदि पर्यायाथिकके अर्थमें व्यवहृत होते हैं।
इन नयोंमें उत्तरोत्तर सूक्ष्मता एवं अल्पविषयता है । नैगमनय संकल्पग्राही होनेसे सत् असत् दोनोंको विषय करता था इसलिए सन्मात्रग्राही संग्रहनय उससे सूक्ष्म एवं अल्पविषयक होता है । सन्मात्रग्राही संग्रहनयसे सद्विशेषग्राही व्यवहार अल्पविषयक एवं सूक्ष्म हुआ । त्रिकालवर्ती सद्विशेषग्राही व्यवहारनयसे वर्तमानकालीन सद्विशेष-अर्थपर्यायग्राही ऋजुसूत्र सूक्ष्म है। शब्दभेद होनेपर भी अभिन्नार्थग्राही ऋजसत्रसे कालादि भेदसे शब्दभेद मानकर भिन्न अर्थको ग्रहण करनेवाला शब्दनय सूक्ष्म है । पर्यायभेद होनेपर भी अभिन्न अर्थको ग्रहण करनेवाले शब्दनयसे पर्यायवाची शब्दोंके भेदसे अर्थभेदग्राही समभिरूढ़ अल्पविषयक एवं सूक्ष्मतर हुआ। क्रियाभेदसे अर्थभेद नहीं माननेवाले समभिरूढ़से क्रियाभेद होनेपर भी अर्थभेदग्राही एवम्भूत परमसूक्ष्म एवम्अत्यल्पविषयक है।
नय-दुनय--नय वस्तुके एक अंशको ग्रहण करके भी अन्य धर्मोका निराकरण नहीं करता उन्हें गौण करता है । दुर्नय अन्यधर्मोका निराकरण करता है । नय साक्षेप होता है दुर्नय निरपेक्ष । प्रमाण उभयधर्मग्राही हैं। अकलङ्कदेवने बहुत सुन्दर लिखा है--"धर्मान्तरादानोपेक्षाहानिलक्षणत्वात् प्रमाणनयदुनयानां प्रकारान्तरासंभवाच्च, प्रमाणात् तदतत्स्वभावप्रतिपत्तेः तत्प्रतिपत्तेः तदन्यनिराकृतेश्च" (अष्टाश० अष्टसह पृ० २९०) अर्थात् प्रमाण तत् और अतत् सभी अंशोंसे पूर्ण वस्तुको जानता है, नयसे केवल तत्-विवक्षित अंशकी प्रतिपत्ति होती है और दुर्नय अपने अविषय अंशोंका निराकरण करता है । नय धर्मान्तरोंकी उपेक्षा करता है जबकि दुर्नय धर्मान्तरोंकी हानि अर्थात् निराकरण करनेकी दुष्टता करता है। प्रमाण सकलादेशी और नय विकलादेशी होता है । यद्यपि दोनोंका कथन शब्दसे होता है फिर भी दृष्टिभेद होने से यह अन्तर हो जाता है। यथा, 'स्यादस्ति घट: यह वाक्य जब सकलादेशी होगा तब अस्तिके द्वारा पूर्ण वस्तुको ग्रहण कर लेगा। जब यह विकालदेशी होगा तब अस्तिको मुख्यतथा शेषधर्मोको गौण करेगा। विकलादेशी नय विवक्षित एक धर्मको मुख्यरूपसे तथा शेषको गौणरूपसे ग्रहण करते हैं जबकि सकलादेशी प्रमाणका प्रत्येक वाक्य पूर्ण वस्तुको समानभावसे ग्रहण करता है। सकलादेशी वाक्योंमें भिन्नताका कारण है-शब्दोच्चारणकी मुख्यता। जिस प्रकार एक पूरे चौकोण कागजको क्रमशः चारों कोने पकड़कर पूराका पूरा उठाया जा सकता है उसी प्रकार अनन्तधर्मा वस्तुके किसी भी धर्मके द्वारा पूरीकी पूरी वस्तु ग्रहण की जा सकती है। इसमें वाक्योंमें परस्पर भिन्नता इतनी ही है कि उस धर्मके द्वारा या तद्वाचक शब्दप्रयोग करके वस्तुको ग्रहण कर रहे हैं। इसी शब्दप्रयोगकी मुख्यता
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