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लापरवाही से शरीर का और प्रसाद के धर्म का विनाश होता है।
करने वाली है । इसका अभ्यास कर पूर्वकालीन महानुभाव अपनी प्रात्मा का कल्याण कर अविनाशी पद प्राप्त करते थे। श्री जिनेन्द्र प्रभु तथा गणधर देव भी इस विद्या के पूर्ण ज्ञाता थे। अर्थात् वे इस विद्या के प्राणायामादि सर्व अंगों-उपांगों को भली भांति जानते थे। श्री भद्रबाहु स्वामी चौदह विद्या को अन्तर्महूर्त में पर्यालोचन करने के लिये यहां प्राणायाम की साधना करते थे। इस बात का उल्लेख अनेक स्थलों में पाया जाता है।
इतिहास का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि पूर्व काल में जैनाचार्य सिद्धसेन दिवाकर, जैनाचार्य हरिभद्र सूरि, जैनाचार्य हेमचन्द्रसूरि, जैनाचार्य दादा जिनदत्त सूरि, आदि अनेक महापुरुषों ने इस विद्या की पूर्ण साधना की थी। यह बात उनके द्वारा रचित योग के अनेक ग्रंथों से स्पष्ट ज्ञात होती है। .. आज से लगभग दो सौ वर्ष पहले श्रीपानन्दघन जी, उपाध्याय यशोविजय" जी, चिदानंद जी (इस स्वरोदय आदि के कर्ता), ज्ञानसार जी आदि भी · महायोगी हो गये हैं,इनके द्वारा रचित पद्यों,स्तुतियों, ग्रन्थों आदिसे भी ज्ञात होता है कि पूर्वकाल में जैनमुनि- यति योगाभ्यास की साधना क्रिया बहुत अच्छी तरह से करते थे। परन्तु खेद का विषय है कि आजकल जैन शासन में ऐसा एक भी योगीपुरुष दृष्टिगत नहीं होता।
यत्ति लोग जिन्हें पंजाब में प्रज तथा राजस्थान में गुर्रा सा एवं गूजरात सौराष्ट्र में गोर जी कहते हैं वे तो आज प्रायः समाप्त हो चुके हैं। यदि . कोई बचे-खुचे रह भी गये हैं तो वे गृहस्थी बन चुके हैं । कोई भूला बिसरा विद्यमान भी है तो वह भी इस विद्या से सर्वथा शून्य है। ..
मुनि लोग भी प्राय: अपने मान महत्व बढ़ाने में तथा आडम्बरों के माया जाल में उलझे हुए हैं। इसलिये स्वरोदय ज्ञान का अभ्यास शश शृंगवत हो गया है। यदि अन्य लिंगियों में कोई योगाभ्यासी होगा तो शायद खोजने से कहीं मिल भी जावे तो वह अध्यात्मावस्था प्राप्त न होने से नोली, धोती
आदि क्रियों द्वारा लोग रंजन के अतिरिक्त आत्म कल्याणकारी मार्ग का दर्शन नहीं करा सकता।
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