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(१३)
पिता पितामह प्रपितामह द्वारा उपाजित लक्ष्मी का स्वामी था, वह जैन दर्शन जैनागम में विचक्षण, मोक्ष मार्ग परायण जिनेंद्रदेव तथा साधुओं की सेवा में लीन तथा अत्यंत साधार्मिक वत्सल था। अपने रूप से देवांगनाओं को भी तिरस्कृत करनेवाली पतिव्रता गृहकार्यकुशल प्राणप्रिया मनोरमा नाम की उसकी भार्या थी, त्रिवर्गसार विषय सुख का अनुभव करते हुए उनके कुल का अलंकार रूप एक पुत्र उत्पन्न हुआ, बारह दिन बीतने पर कुलाचार के अनुसार माता-पिता ने उसका नाम धनदेव रक्खा । पाँच धाइयों के द्वारा लालन पालन-किया जाता हुआ वह बालक बढ़ने लगा, माता-पिता को आनंद देनेवाला वह कुमारभाव को प्राप्त हुआ, आठ वर्ष से कुछ अधिक का होने पर माता-पिता ने सभी विद्याओं में प्रवीण कलाओं को जाननेवाले उपाध्याय को वह बालक समर्पित किया। थोड़े ही समय में उस बालक धनदेव सब विद्याएँ सीख लीं, और सभी कलाओं में वह कुशल बन गया । धनदेव को घर लाया गया और उपाध्याय का वस्त्र आदि से उसके पिता ने खूब सत्कार किया, क्रमशः बढ़ता हुआ वह यौवन अवस्था को प्राप्त हुआ और कामदेव से भी अधिक सुंदर वह युवतियों को अत्यंत प्रिय लगने लगा, वह किसी समय समान यौवन रूपवाले मित्रों के साथ लीला करता हुआ स्वेच्छा से इधर उधर घूमता हुआ नगर के बाहर एक उद्यान में आया। वहाँ उसने बावड़ी के तट पर शोक से खिन्न आँसू बहाते हुए एक पुरुष को देखा, उसको देखकर धनदेव को बड़ी दया आई उसके पास जाकर उसने मधुर वचन से कहा, भद्र ! आप कौन हैं ? कहाँ से आए हैं ? और आपके इस शोक का कारण क्या है ? उसने कहा कि जो दुःख का प्रतिकार नहीं कर सकता उससे