Book Title: Sursundari Charitra
Author(s): Bhanuchandravijay
Publisher: Yashendu Prakashan

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Page 220
________________ (२०९) श्रमणसंघ का सत्कार किया । सामंतों को घोड़ा, हाथी, रथ, गांव, नगर आदि देकर उचित सत्कार किया। इसके बाद राजा दूसरे दिन परिजन के साथ, बड़ी समृद्धि के साथ, विद्याधरों को साथ लेकर सूरि की वंदना करने के लिए निकले । सूरि तथा अन्य तपस्वियों की वन्दना करके बैठे । गुरु ने जिन-देशित धर्म का उपदेश दिया। इसके बाद सूरि की वंदना करके कमलावती ने विनयपूर्वक पूछा कि भगवन् ! मैंने अन्य जन्म में कौनसा कर्म किया था, जिससे मुझे पुत्र-विरह का असह्य दुःख प्राप्त हुआ। केवली ने कहा, देवानुप्रिये ! सुनो मैंने अमरकंटक नगरी के जिस अम्मड़ वणिक की बात की थी। जो मंडन आदि का पिता था और अक्षुता जिसकी भार्या थी। वह अनेक भवभ्रमण करने के बाद इसी भरतक्षेत्र में मरुदेश में 'हरिस डक' गाँव में अर्जुन नाम का मेहर गाँव का मालिक होकर उत्पन्न हुआ। अक्षुता अर्जुन की बंधुश्री नाम की भार्या रूप में उत्पन्न हुआ। दोनों में अत्यंत प्रेम था। खेती में अपना समय बिताते थे। दोनों स्वभाव से ही दयाशील तथा अल्पकषायवाले थे। वर्षाकाल आने पर दोनों जब खेती के काम में लगे थे । उन्हीं के खेत के पास गर्भवती हरिणी के साथ एक हरिण रहता था, एक दिन हरिणोसहित वह हरिण अर्जुन के खेत में आ गया, अर्जुन उसको निकालने के लिए चला । अर्जुन के भय से वह हरिणी गिर पड़ी, क्यों कि उसका प्रसव समय आ गया था। हरिण तो भाग गया किंतु प्रिया-वियोग से दुःखी होकर बार-बार अर्जुन की ओर देखता था । अर्जुन वे हरिणी को अपने घर ले आया। शीतल जल छींटने पर उसकी मूर्छा टूट गई और उसने प्रसव

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