Book Title: Sursundari Charitra
Author(s): Bhanuchandravijay
Publisher: Yashendu Prakashan

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Page 227
________________ (२१६) रक्षा के लिए मुझसे उसने दिव्यमणि ली थी, बाहुवेग शीघ्र कुंजरावर्त गया और चंद्रवेग विद्याधर के साथ मणि लेकर वहाँ पहुँच गया । तब मणिजल से सींचते ही दोनों का विषविकार नष्ट हो गया। सभी विद्याधर प्रसन्न हो गए और सभी प्रियंवदा की प्रशंसा करने लगे। राजा भी भवस्वरूप का चिंतन करते हुए अपने नगर आए। ___वहाँ से अपने नगर आने पर राजा चिंतन करने लगे कि अनेक विपत्तियोंवाले जीवों को जिनेंद्र-धर्म छोड़कर दूसरा कोई बचानेवाला नहीं। जीव तो सर्प-विष कॉलरा-हैजा का आदि से एक मुहूर्त में दूसरे शरीर को प्राप्त कर जाता है। इस प्रकार अत्यंत चंचल जीवन होने पर भी जीव विषय मोहित होकर सतत प्रमाद करते ही रहते हैं, इसके बाद राजा की विपत्ति नष्ट हो गई, यह जानकर विद्याधरों ने हस्तिनापुर आकर राजा को बधाई दी। सुरसुंदरी उसी दिन गर्भवती हुई और राजा के ऊपर से एकाएक उसका स्नेह नष्ट हो गया । ज्यों-ज्यों गर्भ बढ़ने लगा, उसके प्रभाव से रानी का हृदय भी त्यों-त्यों अत्यंत कठोर होने लगा, यहाँ तक कि वह खुद अपने हाथ से राजा को मार डालने के लिए मन में सोचने लगी। राजा के कुछ पूछने पर अत्यंत निष्ठुर वचन बोलने लगी, भोग की इच्छा ही उसने छोड़ दी, राजा को देखते ही होंठ काटने, भौंह चढ़ाने लगी। दूसरी ओर अपना मुख करके रहने लगी। उसके इस आचरण से दुःखी होकर एक दिन प्रियंवदा ने उससे क्रोध का कारण पूछा। उसने कहा कि पापगर्भ के प्रभाव से राजा के ऊपर मुझे बहुत क्रोध आता रहता है, इसलिए आप जाकर राजा से कहें कि मेरे इस व्यवहार को देखकर मेरे ऊपर वे क्रोध नहीं करें। दूसरी बात यह है कि आप उनसे कह दीजिए

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