Book Title: Sursundari Charitra
Author(s): Bhanuchandravijay
Publisher: Yashendu Prakashan

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Page 237
________________ (२२६) - इस प्रकार सूरि जब बोल रहे थे, चारों धाती. कर्मों के क्षय होने से उन्हें केवल ज्ञान उत्पन्न हो गया। उसी समय शुभ-भावना में रहते हए अमरकेतु मुनि-धनदेव मुनि, कनकमाला, कमलावती, सुरसुन्दरी, प्रियंगुमंजरी इनको भी केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ । देवों ने इनकी महिमा की, कालक्रम से वे निर्वाण प्राप्त हो गए। अपने पाप से मदनवेग अनंत संसार में परिभ्रमण करेगा। इसलिए हे भव्यजन ! आप लोग यत्नपूर्वक महाशत्रु राग-द्वेष का त्याग करें। ‘सुरसुन्दरीचरियं' नामक यह कथा समाप्त हो रही है। आप लोग भक्ति से वीतराग जिनेंद्र को प्रणाम करें ! . — संसार-समुद्र में डूबते हुए जंतुओं के लिए यानपात्र समान तीर्थंकर भगवान महावीर के शिष्य सुधर्मा स्वामी हुए । उनके बाद जंबुस्वामी, उनके बाद प्रभवस्वामी। इस प्रकार सूरिपरंपरा में जिनेश्वर सूरि अत्यंत प्रसिद्ध हुए। उनके पट्ट उपाध्याय अल्लक हुए। उनके शिष्य अत्यंत विद्वान वर्धमानसूरि हुए। उनके दो शिष्य हुए, जो मित्र शत्रु के लिए समान थे। विशुद्ध देशना में प्रवीण, अनेक कथाओं के रचयिता थे। जिन में एक का नाम जिनेश्वर-सूरि था। उनके सहोदर भाई बुद्धिसागर-सूरि थे । जिनके मुखारविंद से निकली वाणी विद्वानों के चित्त को अनुरंजित करनेवाली थी। उनके शिष्य धनेश्वरमुनि ने यह ‘सुरसुन्दरीचरियं' नामक प्राकृतभाषामयी कथा की रचना की है । चड्डावल्लिपुरी में गुरु की आज्ञा में रत रहते हुए उन्होंने विक्रम संवत् १०९५ दशसो पंचानबे में इस ग्रंथ को संपूर्ण किया। ‘निर्वाण विधान ' नाम सोलहवाँपरिच्छेद समाप्त

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